रविवार, फ़रवरी 26

तू सबब है यहाँ

 
तू सबब है यहाँ

हर घड़ी ख़ास है 

तू मेरे पास है, 

भर रहा नित नयी 

हृदय में आस है !


तुझको देखा नहीं 

पर बता तो सही, 

प्रीत की धार यह 

बिन मिले ही बही !


तू सबब है यहाँ 

जगत सजदा करे, 

हे  माया पति 

रच दे पल में जहाँ, 


कोई जाने नहीं 

तू ही सबमें छिपा, 

खुद को पा कर बँधा 

नित छुड़ा ही रहा !


मन हुआ क़ैद हैं 

अपने ही जाल में, 

कैसे छोड़ेगा तू 

हमें निज हाल में !


इल्म देता हुआ 

सदा रस्ता दिखा, 

ले चले है हमें

 प्यारा रहबर ख़ुदा !

बुधवार, फ़रवरी 22

किंतु न जानूँ पथ पनघट का


किंतु न जानूँ पथ पनघट का

पंथ निहारा, राह बुहारी 

लेकिन तुम आए नहीं श्याम, 

नयन बिछाए की प्रतीक्षा 

बीत गए कई आठों याम !


अंतर में संसार भरा था 

शायद तुम एकांत  निवासी, 

कहाँ बिठाती इस दुविधा से 

बचा गए मुझको घनश्याम !


अब यह सूनापन भाता है 

हर आहट पर हृदय धड़कता, 

एक नज़र ही पा जाए मन 

नहीं औरों से मुझको काम !


नगरी तेरी दूर  नहीं है 

किंतु न जानूँ पथ पनघट का, 

जीवन की संध्या  घिर आयी 

कब दर्शन  मिले  मनोभिराम !


सोमवार, फ़रवरी 20

ज्वाला कोई जले निरंतर

ज्वाला कोई जले निरंतर
बरस रहा है कोई अविरत
झर-झर झर-झर, झर-झर झर-झर
भीग रहा कब कोई पागल 
ढूँढे जाता सरवर, पोखर !

प्रीत गगरिया छलक रही है
 युगों-युगों से सर-सर सर-सर,
प्यासे कंठ न पीते लेकिन
 अकुलाये से खोजें निर्झर !

ज्वाला कोई जले निरंतर
बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम,
राह टटोले नहीं मिले पर  
अंधकार में टकराते हम !

शब्दों में वह नहीं समाये
अंतर को ही अम्बर कर लें,
कैसे जग को उसे दिखाएँ
रोम-रोम में जिसको भर लें !

गाए रुन-झुन, रिन-झिन, निशदिन
हँसता हिम शिखरों के जैसा,
रत्ती भर भी जगह न छोड़े
बसा पुष्प में सौरभ जैसा !

रग-रग रेशा-रेशा पुलकित
कण-कण गीत उसी के गाये  ,
रिसता मधु सागर के जैसा
श्वास-श्वास में वही समाये !


शुक्रवार, फ़रवरी 17

उर में मुक्ति राग बजें


उर में  मुक्ति राग बजें 

आशा नहीं आस्था के हम मिलकर दीप जलायें 

तज आकाश कुसुम तंद्रा के श्रद्धा पुष्प खिलायें,


हरकर तमस भरेंगे  पावन मधुर  सुवास हृदय में 

मंगल प्रीत अल्पनाओं  पर नेह घट विमल सजायें ! 


मोहपाश तोड़कर सहसा उर में  मुक्ति राग बजें 

नील गगन में भर  उड़ान  मन मयूर निर्मुक्त सजें,


पाषाणों से ढके स्रोत जो सिमटे अपने गह्वर 

सहज  प्रवाहित निर्बाधित  बह निकलें उत्ताल लहर  !


छाए बहार चहुँ ओर मिटे  तामस हर इक घट का 

झांकें गहन  रहस्य खोजें  खोलें  पट घूँघट का ! 


जो  गाए न गीत कभी ना  जिनकी लय-धुन बांधी

परिचय करें अनाम स्वरों  से  गूँजे  नयी रागिनी  !  

​​

मंगलवार, फ़रवरी 14

हम एकाकी

हम एकाकी


प्रेम अगर पाया भीतर तो

मिले यह सृष्टि प्रेम लुटाती, 

स्वयं से भी जो न जुड़ पाया

पीड़ा मन की रहे सताती I


भीतर जाकर झोली भर ली

वही लुटाता  यहाँ  आनंद,

जिसके साथ सदा रब रहता

वही बहाता  मदिर  मकरंद !


खुद के साथ रहे जो अविरत

खुद से नाता जोड़ा जिसने,

वही दूसरों से जुड़ सकता

खुद को मीत बनाया जिसने !


खुद का जब तक साथ न पाले

हर कोई एकाकी जग में,

खुद  की भीतर थाह न पाले

हर कोई प्यासा इस मग में !


जग में आते हम एकाकी

 संगी-साथी पल दो पल के,

जग से जाते हम एकाकी

 कौन चला है संग किसी के !


सोमवार, फ़रवरी 13

मौन

मौन 


मौन को गुनो 

मौन से जो झरती है आभा 

उसे ही चुनो 

जैसे गिरते हैं चुपचाप हरसिंगार 

सुवास फैलाते 

मौन के उन क्षणों से भी 

किस अन्य लोक की सुगंध आती है 

जैसे कोई कहे कृष्ण 

तो राधा अपने आप चली आती है 

और इतना ही नहीं 

गौएँ और गवाले भी ! 

भीतर वृंदावन उभर आते हैं 

और महारास घटता है 

कृष्ण का नाम छुपाए है

 सारा ब्रह्मांड 

मौन में भी 

एक साम्राज्य से मिलन होता है 

जो नितांत अपना है 

नि:शब्द जहाँ कोई रस बहता है !


शुक्रवार, फ़रवरी 10

चुनाव

चुनाव 


शब्दों का एक जखीरा है वहाँ

हाँ , देखा है मैंने 

 ध्वनि एक,  जिससे उपजे शब्द अनेक 

एक  शै के भिन्न-भिन्न नाम 

उनमें से कुछ चुन लिए मैंने 

प्रेम, विश्वास और हंसी 

करते हुए शब्द ब्रह्म को प्रणाम 

शायद अनजाने में ही 

तुमने चुने होंगे 

युद्ध, सन्देह और पीड़ा 

तभी पनपी हैं दुःख की बेलें 

तुम्हारे आंगन में 

और यहाँ सुरभित फूलों की लताएँ !

सुवास से भरा है प्रांगण  

आँगन ही नहीं 

गली तक फैली है ख़ुशबू 

ऐसे ही कुछ देश चुन लेते हैं 

अपने लिए विकास और विश्वास 

और कुछ जाने किस भय में 

जिए जाते हैं खोकर हर आस ! 


गुरुवार, फ़रवरी 9

जिसने भी पहचाना सच को




जिसने भी पहचाना सच को  

मानस हंस ध्यान के मोती 
चुन-चुन कर नित पुलकित होता, 
सुमिरन की डोरी में जिसको 
अंतर मन लख, निरख पिरोता !

मुस्कानों में छलक उठेगी  
सच्चे मोती की शुभ आभा, 
जिसने भी पहचाना सच को  
दुनिया में है वही सुभागा !

ध्यान बिना अंतर मरुथल सम  
मन पंछी भी फिरे उदासा,
रस की भीनी धार बहेगी  
वह लेकिन प्यासा का प्यासा !

कोई भीतर डुबकी मारे 
छू भी लेता बस उस घट को, 
अमीय छलके जहाँ  निरन्तर 
खोले जब उर घूँघट पट को !

ध्यान बरसता कोमल रस सा 
कण-कण काया का भी हुलसे, 
खोजें इक सागर गहरा सा 
व्यर्थ त्रिविध आतप  में झुलसें !

तृप्त हुआ जब मन का सुग्गा 
केवल इक ही नाम रटेगा, 
कृत-कृत्य हो जगत में डोले 
जैसे मन्द समीर बहेगा !

या सुवास बनकर  फैलेगा  
जगती के इस सूनेपन में, 
शब्द सहज झरेंगे जैसे 
पारिजात झरते  उपवन में !

गुरुवार, फ़रवरी 2

मौसम का वर्तुल


मौसम का वर्तुल 

आते और जाते हैं मौसम 
जंगल पुनः पुनः बदलते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली बन चुभती है
कभी तपाती..आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती   
निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
जैसे बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें 
मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार
फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता मन
कैसा पावन नहीं हो जाता 
एक प्रौढ़ मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी-बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में..