शनिवार, नवंबर 30

छिपा अरूप रूप के पीछे

छिपा अरूप रूप के पीछे


इश्क में जो भी डूबा यारा
बहती भीतर अमृत धारा,
जब-जब उस से लगन लगाई
जल जाती हर झूठी कारा !


जब कण-कण में वही बसा है
नयनों से फिर कौन पुकारे,
स्मित उसका पट छूकर आयी
भाव पंख से जिसे सँवारे !


हल्का-हल्का सा स्पंदन है
किस अनदेखे का नर्तन है,
पलक झपकते निमिष मात्र में
महाकाल का शुभ वंदन है !


छिपा अरूप रूप के पीछे
उसे निहारा किन नयनों से,
सुख की गागर सदा लुटाये
व्यक्त हुआ ना वह बयनों से  !


रूप, रंग, रस स्वाद अनूठा
कौन सुनाये अपनी गाथा,
कोई नहीं अलावा उसके
खुला रहस्य उसने बांचा !

शुक्रवार, नवंबर 29

निशदिन बँटता जाता है वह



निशदिन बँटता जाता है वह



चाँद, सितारे, सूरज मांगे
वही बने हकदार ज्योति के,
काली रातें आँसू चाहे
कैसे  बिछें उजाले पथ में !

निशदिन बँटता जाता है वह
खुद ही तो जड़-चेतन होकर,
अनगिन बार मिला है सब कुछ
फिर-फिर द्वार खड़े सब खोकर !

कितनी बार ख़ुशी छलकी थी
अंतर प्रेम जगाया  सुंदर,
कितने मीत बनाए जग में
कितने गीत रचे थे मनहर !

जितना पाया वह क्या कम था
तुष्टि पुष्प खिला नहीं अब तक,
हो कृतज्ञ कहाँ छलके अश्रु
फिर भी देते जाता है रब !

जो भी जिसने माँगा जग में
अकसर वही वही पाया है,
जितना बड़ा किसीका दामन
उतना उसी में समाया है !


बुधवार, नवंबर 27

तू


तू 


जर्रे जर्रे में छिपा है तू ही
बोलता है हर जुबां से तू ही,
हरेक दिल, हर जिगर का बाशिंदा
हर सवाल का जवाब है तू ही !

हर चुनौती इक खेल है जहाँ में
चप्पे-चप्पे पर बिछा है तू ही,
हर दर्द तुझसे मिलने का सबब
हरेक तरंग, हर लहर है तू ही !

किसलिए डरें, तंज करें जग  पर
जब कि हर बात बनाता है तू ही,
तुझ से उपजा हर फलसफा जग का
तेरी रहमत जानता है तू ही !

हर फ़िक्र तुझसे दूर रखती है
हर निशां से झलकता है तू ही,
हर  रस्ता मंजिल की तरफ  जाता
इशारे दिए जाता है तू ही !

मंगलवार, नवंबर 26

मन


मन 

सोया है मन युगों-युगों से
सुख स्वप्नों में खोया भी है

कुछ झूठे अंदेशों पर फिर
रह-रह नादां रोया भी है

सुख-दुःख की लहरों पर चढ़कर
दामन व्यर्थ भिगोया भी है

माया के कंटक से बिंधकर
अश्रुहार पिरोया भी है

प्रेम पीर से आहत होकर
अंतर राग समोया भी है

सूखे पत्तों से भरा हुआ
उर का आंगन धोया भी है

पुनः-पुनः उसी राह पर जाये
सुनी सीख यह गोया भी है

सोमवार, नवंबर 25

कल आज और कल

कल आज और कल

फ़िक्र कल की क्यों सताए
आज जब है पास अपने,
कल लगाये  बीज ही तो
पेड़ बन के खड़े पथ में !

मौसमों की मार सहते
पल रहे थे, वे बढ़ेंगे,
गूँज उनकी दे सुनायी
गीत जो कल ने  गढ़े थे !

एक अनुभव एक स्पंदन
सुगबुगाया था मनस में,
एक चाहत लिए आयी
द्वंद्व के इस  बाग बन में !

कर्म को पूजा बनाया
एक गौरव पल रहा था,
ध्यान पूजा अर्चना में
जगत सारा जल रहा था !

चेतना कब मुक्त होगी
भेद सारा छिपा इसमें,
कब तलक चलते रहेंगे
बस एक अंधी दौड़ में !



शनिवार, नवंबर 23

जिंदगी


जिंदगी 


जिस घड़ी आ जाये होश जिंदगी से रूबरू हों
एक पल में ठहर कर फिर  झांक लें खुद के नयन में
बह रही जो खिलखिलाती गुनगुनाती धार नदिया
चंद बूंदें ही उड़ेलें उस जहाँ की झलक पालें

क्या यहाँ करना क्या पाना यह सिखावन चल रही है 
बस जरा हम जाग देखें और अपने कान धर लें
नहीं चाहे सदा देती नेमतें अपनी लुटाती
चेत कर इतना तो हो कि फ़टे दामन ही सिला लें

पूर्णता की चाह जागे मनस से हर राह मिलती
ला दिया जिसने सवेरा रात जिससे रोज खिलती
उस भली सी इक ललक को धूप, पानी, खाद दे दें
जो कभी बुझती नहीं है वह नशीली आग भर लें

शनिवार, नवंबर 9

पिता

पिता 

पिता के लिए दुनिया एक अजूबा बन गयी है 
जैसे कोई छोटा बच्चा देखता है हर शै को अचरज से 
उनकी आँखें विस्मय से भर जाती हैं 
झुर्रियों से अंदर छुप गयीं सी उनकी मिचमिचाती आँखों में 
जब तब ख़ुशी का कमल खिल उठता है 
जिसे देखकर संतानों का मन भी आश्वस्त हो जाता है 
ठीक उसी तरह जैसे पिता बचपन में तृप्त होते थे 
देख-देख उनके चेहरे की मुस्कान 
वे उन्हें फेसबुक, गूगल, व्हाट्सएप से परिचित कराते हैं 
नतिनी-पोते उन्हें मोबाइल के राज बताते हैं 
कुछ देर नानुकर वह तत्पर हो जाते हैं 
सीखने आधुनिक युग की भाषा 
बटन दबाते पूरी होती कैसे  हरेक की आशा 

उनके अपने बचपन में धूल भरी गलियों में दौड़ते हुए मवेशी हैं 
किसान हैं, बंटवारे की कटु स्मृतियाँ हैं 
पर रहना सीख लिया है उन्होंने निपट वर्तमान में 
माँ भी रह गयी हैं पीछे 
शायद देखा हो कभी स्वप्नों में 
जो कभी रही थीं साथ हर सुख-दुःख में 
वे जी रहे हैं आज के हर पल के साथ कदम मिलाते
उनकी आवाज में अब भी वही रुआब है 
जिसे सुनने के लिए उत्सुक है संतान
देखना चाहती है पिता के भीतर ऊर्जा का प्रवाह 
जैसे कोई बच्चा बड़ों को धमकाए अपनी नादाँ प्यारी हरकतों से 
तो वारी जाते हैं माँ-बाप 
बच्चा आदमी का पिता होता है कवि ने सही कहा है 
चक्र घूम रहा है कब बालक बन जाता है वृद्ध 
कोई नहीं जानता

निमन्त्रण देते हैं सभी उन्हें अपने-अपने घर आने के लिए 
नए-नए आविष्कार, नए स्थान दिखाने 
सभी देखना चाहते हैं उनके चेहरे पर हँसी और मुस्कान 
दिखाना, आधुनिक सुख-सुविधाओं से भरे मकान 
पिता सन्तुष्ट हैं जैसे मिला हो कोई समाधान
ज्यादातर समय रहते हैं स्वयं में ही व्यस्त 
किताबों और संगीत की दुनिया में मस्त 
कभी अख़बार के पन्ने पलटते अधलेटे से 
लग जाती है आँख भरी दोपहरी में 
तो कभी जग जाते हैं आधी रात को ही 
अल सुबह चिड़ियों के जगने से पूर्व ही छोड़ देते हैं  बिस्तर 
अपने हाथों से चाय बनाकर पी लेते 
ताकत महसूस करते हैं वृद्ध तन में 
फोन पर जब संतानें पूछती हैं हाल तबियत का 
तो नहीं करते शिकायत पैरों में बढ़ती सूजन की 
या मन में उठती अनाम आशंका की 
दर्शन की किताबों में मिला जाता हैं उन्हें हर सवाल का जवाब 
मुतमईन हैं खुद से और सारी कायनात से 
कर लिया है एक एग्रीमेंट जैसे हर हालात से !

कार्तिक पूर्णिमा के दिन पिताजी का नवासीवां जन्मदिन है.

बुधवार, नवंबर 6

भोर के तारे सा छुप जाएगा जग


भोर के तारे सा छुप जाएगा जग 



बंद आँखों से जमाना देखते हैं हम कहाँ अक्सर हकीकत देखते हैं चाह की चादर ओढ़ायी थी किसी ने यूँही अपना हक समझ कर देखते हैं दोनों हाथों से जकड़ चलते रहे दिल को ही बढ़कर खुदा से देखते हैं जिस राह पर दुश्वारियां मंजिल नहीं ख़्वाब उस के ही दिलों में देखते हैं भोर के तारे सा छुप जाएगा जग पत्थरों में निशां उसके देखते हैं जो सुकूं का, है समंदर प्रीत का भी उसे सदियों दूर से ही देखते हैं आसमां है बदलियां, बारिशें, धूप जो जरूरी जुड़ उसी से देखते हैं

सोमवार, नवंबर 4

ख्वाब और हकीकत


ख्वाब और हकीकत 

कौन सपने दिखाए जाता है
नींद गहरी सुलाए जाता है

होश आने को था घड़ी भर जब
सुखद करवट दिलाए जाता है

मिली ठोकर ही जिस जमाने से
नाज उसके उठाए जाता है

गिन के सांसे मिलीं, सुना भी है
रोज हीरे गंवाए जाता है

पसरा है दूर तलक सन्नाटा
हाल फिर भी बताए जाता है

कोई दूजा नहीं सिवा तेरे
पीर किसको सुनाए जाता है

टूट कर बिखरे, चुभी किरचें भी
ख्वाब यूँही सजाए जाता है