बुधवार, जुलाई 31

चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


मानस की घाटी में श्रद्धा का बीज गिरा
प्रज्ञा की डालियों पर शांति का पुष्प उगा,
मन अंतर सुवास से जीवन बहार महकी  
रिस-रिस कर प्रेम बहा अधरों से हास पगा !

कण-कण में आस जगा नैनों में जोत जली
हुलसा तन का पोर-पोर अनहद नाद बजा,
मधुरिम इक लय बिखरी जीवन संगीत बहा
कदमों में थिरकन भर अंतर में नृत्य जगा !

मुस्काई हर धड़कन लहराया जब वसंत
अपने ही आंगन में प्रियतम का द्वार खुला,
लहरों सी बन पुलकन उसकी ही बात कहे
बिन बोले सब कह दे अद्भुत आलाप उठा !

हँसता है हर पल वह सूरज की किरणों में
चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा,
पल-पल संग वही संवारे सुंदर भाग जगा
देखो यह मस्ती का भीतर है फाग सगा !

युग-युग से प्यासी थी धरती का भाग खुला
सरसी बगिया मन की जीवन में तोष जगा,
वह है वही अपना रह-रह यह कोई कहे
सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा !


सोमवार, जुलाई 29

मृगतृष्णा सा सारा जीवन


मृगतृष्णा सा सारा जीवन


जो भी चाहो सब मिलता है
 माया का जादू चलता है,
फिर भी जीवन उपवन सूना
दिल का फूल कहाँ खिलता है !

रूप रंग है कोमल स्वर भी
थमकर देखें समय कहाँ,
सपनों का इक नीड़ बनाते
नींद खो गयी चैन गया !

अरमानों को बड़ा सहेजा
चुन-चुन कर नव स्वप्न संजोये,
बिखर गये सूखे पत्तों से
 बरबस ही फिर नयन भिगोये !

कदमों में आशा भर दौड़े
हाथों में था गगन समाया,
किंतु दूर ही रहा क्षितिज सम
मुट्ठी में कुछ भी न आया !

मृगतृष्णा सा सारा जीवन
पार नहीं इसका मिलता है,
मन मयूर भी सदा डोलता
ज्यों लहरों में शशि हिलता है ! 

शनिवार, जुलाई 27

कारगिल



वर्षों पूर्व लिखी यह कविता आज स्मरण हो रही है. विजय दिवस पर सभी को  शुभकामनायें !

कारगिल


कारगिल
बन गया भारत का दिल !

हैं रक्तरंजित घाटियाँ
गोलियों की गूँज बन हुँकारता
आज घायल शेर सा दहाड़ता
पर्वतों की चोटियाँ ज्वलित हुईं
हिमशिलायें बनी शिखा जल उठीं !

कारगिल
बन गया जन-जन का दिल !

आज डेरा वीर जन का
यज्ञ स्थल अपने वतन का
रात-दिन इसको समर्पण
अदम्य शक्ति का प्रदर्शन
शत्रु हन्ता !  शत्रु बेधक !

कारगिल
बना हुआ वीर मंजिल !

कोटि-कोटि प्राण इसमें
पर्वतों के संग हँसते
निर्झरों के साथ बहते
स्वर्ग भूमि पर यह कहते
शत्रु माने और जाने
कारगिल, न होगा हासिल !


मंगलवार, जुलाई 16

सदगुरु हरता अंधकार है


गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर 
सदगुरु को समर्पित


जैसे शिल्पी काट-छांट कर, पत्थर इक तराश देता है
सदगुरु राग-द्वेष मिटाकर, अंतर में प्रकाश देता  है !

माली बन हृदय को सींचे, अदा अनोखी अद्भुत उसकी
परमेश्वर से सदा जुड़ा वह, प्रकटाता उसकी अमल ज्योति !

बिखर गयीं जो मनस शक्तियाँ, एकीकृत कर धार भरे वह
केंद्रित हो जाता जब मन तो, सहज आत्मिक दुलार भरे वह !

सदगुरु हरता अंधकार है, ज्ञान उजाले में ले जाता
पथ ही नहीं दिखाता जग में, पथ पर हमराही बन जाता !

जीवन है यदि एक वाटिका, सदगुरु उसमें खिला कमल है
भ्रमरों से सब गुनगुन करते, भीतर जगता गीत विमल है !

लोहा शिष्य स्वर्ण हो जाये, पारस सा वह रहे अमानी
उसके होने भर से होता, सुदृष्टि देता ऐसा ज्ञानी !

साक्षात है शांति रूप वह, शास्त्र झरा करता शब्दों से 
सब करके भी रहे अकर्ता, परम झलकता है नयनों से !

जो भी व्यर्थ खले है मन में, अर्पित उन चरणों पर कर दें
ज्यों पावक में पावन होता, स्वर्णिम मन अंतर को कर दे !

सहज हो रहें जैसे है वह, उतार मुखौटे त्याग उपाधि
जग खुद ही हमसे पायेगा, जीवन में घटे सहज समाधि !

ईश्वर से कम कुछ भी जग में, पाने योग्य नहीं है कहता
उसी एक को पहले पालो, सदगुरु दोनों हाथ लुटाता !

राम नाम की लूट मची है, निशदिन उसकी हाट सजी है
झोली भर-भर लायें हम घर, उसको कोई कमी नहीं  है !

जग में होकर नहीं यहाँ है, सोये जागे वह तो रब में
उसके भीतर ज्योति जली है, देखे वह सबके अंतर में !

भीतर सबके परम ज्योति है, ऊपर पड़े आवरण भारी,
सेवा, सत्संग, शुभ साधना, उन्हें हटाने की तैयारी !

मल, विक्षेप, आवरण मन के, बाधा हैं सभी प्रभु मिलन में
सदगुरू ऐसी डाले दृष्टि, जल जाते हैं बस इक क्षण में !

भीतर का संगीत जगाता, भूल गयी निज याद दिलाता
जन्मों का जो सफर चल रहा, उसकी मंजिल पर ले जाता !

ऐसा परम स्नेही न दूजा, सदा गुरू का द्वार खुला है
बिगड़ी जन्मों की संवारें, ऐसा अवसर आज मिला है !  
  

सोमवार, जुलाई 15

माँ


माँ

बात पुरानी है, जब भारत और पाकिस्तान एक ही मुल्क थे. पाकपटन में हजारों या कहें लाखों पंजाबी परिवारों की तरह दो परिवार रहते थे. एक परिवार की छोटी सी गोल-मटोल बालिका जब खेलते-खेलते पडोस में बने पानी के नल पर पहुँच गयी, जहाँ वे लोग वस्त्र धो रहे थे, तो उस परिवार के मुखिया ने कहा कितनी सुंदर बालिका है, बड़ी होने पर इसे हमारे परिवार की बहू बनायेंगे. बात हँसी-मजाक में कही गयी थी पर वर्षों बाद विभाजन के बाद जब दोनों परिवार भारत आ गये, संयोग से वह बालिका उसी परिवार में ब्याही गयी. विभाजन की त्रासदी के जो दंश मन पर उसने झेले थे, जिसमें उसके पिता की मृत्यु हो गयी थी और माँ को एक हाथ में लकवा मार गया था, ताउम्र वह भुला नहीं पायी. अपना बसा-बसाया घर-बार छोड़कर जब मीलों पैदल चलकर अनजान प्रदेशों में सब कुछ नये सिरे से शुरू करना पड़ता है, तो उसका कष्ट कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है. 

भारत आकर कुछ समाजसेवी महिलाओं की सहायता से दसवीं तक पढ़ाई की, फिर हिंदी में एक विशेष परीक्षा भी उत्तीर्ण की. खैर, वह तो पुरानी बात हो गयी. ब्याह के बाद पति के साथ वह जगह-जगह घूमने लगी, जिनकी डाक विभाग में सरकारी नौकरी लग गयी थी. आजादी के बाद सब जगह नये-नये डाक घर खुल रहे थे, सरकारी नौकरी मिलना एक शान की बात समझी जाती थी. परिवार बढ़ा और बच्चों को लेकर वह कुछ दिनों के लिए ससुराल में आ गयी. तकदीर की बात, पति का तबादला भी उसी शहर में हो गया. सब मिलजुल कर रहने लगे. माँ सुबह उठकर अंगीठी जलाती, उन दिनों गैस के चूल्हे नहीं थे. सबके लिए भोजन बनाती, फिर घर की सफाई करती, कपड़ों को सिर पर उठाकर नदी पर धोने जाती. मोहल्ले के परिवारों के साथ तंदूर पर रोटी सेंकती. सर्दियों में गर्म पानी कर के एक-एक कर सभी बच्चों को नहलातीं, लडकियों के बाल धोतीं. समय निकाल कर बच्चों को गृहकार्य में मदद करती, पत्रिकाओं में हिंदी कहानियाँ पढ़ती. घर में दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, नंदन, पराग, चंदामामा, सरिता सभी पत्रिकाएँ नियमित आती थीं. 

कुछ वर्षों बाद फिर एक नया शहर, नया घर. सारी गृहस्थी समेटकर नये लोगों से जान-पहचान बनाना और सब जगह सखी-सहेलियां बना लेने की कला उसे सहज ही आती थी. बच्चे भी तबादला होने पर पुरानी जगह छूटने का अफ़सोस नहीं करते थे, बल्कि नई जगह के सपने देखने लगते थे. कल्पना में वे नये घर में अपने-अपने कमरों का चुनाव तक कर लेते. माँ ने उन्हें सपने देखना सिखाया था और पिता ने किताबों और कहानियों की एक सुंदर दुनिया से उनका परिचय करवाया था. रेलवे के प्रथम श्रेणी के डब्बों में जब पूरा परिवार बक्सों और बिस्तरों के साथ यात्रा पर निकलता तो वह एक यादगार अनुभव होता था. उन दिनों रेल में ही नहाने की व्यवस्था भी होती थी, पर अक्सर कोयले से काले हुए चेहरे और कपड़ों पर कालिख लेकर ही उन्हें उतरना पड़ता था. माँ के पास गिने-चुने वस्त्र ही होते थे जिन्हें वह सलीके से पहनकर बाहर जाती थी. समय बीतता गया. बच्चे कालेज पहुँच गये, फिर एक एक कर उनके विवाह हो गये. सभी अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त रहने लगे. जब भी कोई घर आता, माँ घर का निकाला मक्खन और स्वादिष्ट परांठे का नाश्ता कराती, साथ ही हाथ का बना स्वेटर या क्रोशिये का कोई मेजपोश आदि उन्हें उपहार में देती. हर सर्दियों में नाती-पोतों, नतिनी-पोतियों के लिए स्वेटर बनाती रहती. छुट्टियों में घर जाने का सभी को इंतजार रहता. पिता भी अब सेवानिवृत्ति के बाद घर पर रहने लगे थे. 

जीवन सदा एक सा नहीं रहता. माँ की तबियत खराब रहने लगी तो उन्हें डाक्टर को दिखाया गया. दिल और श्वास की बीमारी थी, वर्षों तक अंगीठी का धुआं शायद उनके फेफड़ों को प्रभावित करता रहा हो, अथवा तो बचपन में जो भय उन्हें अपने स्कूल में लगता था, उसका असर रहा हो. बारह वर्ष की थीं जब भारत आयीं, पर उससे पूर्व स्कूल में अपनी ही कक्षा में पढ़ने वाली विधर्मी लडकियों से सुना करती थीं कि वे सभी उनकी भाभियाँ बनेंगी. उन्हें धर्म परिवर्तन करना पड़ेगा यदि यहाँ रहना है. कुछ वर्ष इलाज कराने के बाद एक दिन उन्होंने देह त्याग दी. एक कर्मठ जीवन का अंत हुआ, अंतिम दिनों में भी वह पुत्रवधू के लिए स्वेटर बना रही थीं, जो अधूरा रह गया. आज माँ का स्मरण हो रहा है तो लगता है उनके रहते कभी उनसे यह नहीं कहा कि आपने जो शिक्षा हमें दी है, वह अनमोल है. सबके साथ मिलजुल कर रहने की कला, हर जगह मिलते ही अपरिचितों को अपना बना लेना. पिता कई बार पहले से बिना बताये मित्रों को भोजन पर आमंत्रित कर लेते थे, पर वह अनजान लोगों के लिए भी उसी प्रेम से भोजन बनातीं जैसे अपने बच्चों के लिए बना रही हों. वाकई सादगी और श्रम की एक मिसाल थीं माँ. सिलाई-कढ़ाई व बुनाई सीखते समय भले कितनी ही बार एक ही बात को उनसे पूछो वह कभी भी झुंझलाती नहीं थीं, बल्कि अपनी ही त्रुटि समझतीं, कि शायद वह ही ठीक से बता नहीं पा रही हैं. सभी संबंधियों के साथ उनके आत्मीय रिश्ते थे. कोई मेहमान चाहे कितने भी दिन रुके उन्हें शिकायत करते नहीं देखा. कम खर्च में जब बड़ी मुश्किल से महीने का खर्च चलता हो ऐसी उदारता बहुत अर्थवान है. आज सभी सम्पन्न हैं. किंतु किफायत से चलने की जो सीख बचपन में मिली है वह सभी को फिजूलखर्ची से रोकती है. माँ ! आप जहाँ भी हों हम सभी की दुआएं आप तक पहुँचें.      

शुक्रवार, जुलाई 12

पिता स्रोत है


पिता स्रोत है  

हाथों के झूले में सन्तान को
झुलाया होगा उसने अनगिन बार
तो कभी झुंझला कर.. दिया भी होगा गोद से उतार !
सुने होंगे बाल मुख से... गीत और कविताएँ
शिशु को देख दुर्बल भर गयी होगी कभी आँखें
 भारी हो गया होगा मन..अनाम चिंताओं से  
झलक नहीं आया होगा भय उन दुआओं से
संयत वस्त्रों में रहने की सीख
दी होगी किशोरी होती बालिका को
 लगाई भी होगी लापरवाहियों पर फटकार
 निज पैरों पर खड़े होने की सीख सी
कभी अनसुनी भी कर दी होगी पीड़ा की पुकार
 की होगी मदद कठिन गृह कार्य में
लाकर दी होंगी पत्रिकाएँ और पुस्तकें
 सुनाई होंगी अनगिनत कहानियाँ
सह ली होंगी कितनी नादानियाँ
कुदरत के प्रति प्रेम के बीज बोये होंगे
साथ बच्चों के हरियाली राह पर चले होंगे
कंधे पर बिठाया होगा जब थके होंगे नन्हे पांव
बिठा साईकिल दिखाए होंगे नये-नये गाँव  
नहीं की होगी व्यर्थ की प्रशंसा
 व्यर्थ ही लगा होगा.. अहंकार को पोषित करना
कभी बिना कहे ही समझ ली होगी मन की बात
कहलवायी होगी कभी बालक से फरियाद
पिता पालक है.. उसके होने से सुरक्षित है संतान
माँ भी गर्व है उसी का, है परिवार का मान !


गुरुवार, जुलाई 11

जीवन - मरण


जीवन - मरण

उसे ज्ञात है कि जो कुछ भी 'अच्छा' है
वह उसके बस में है
अगर उसका होना
कुदरत के साथ एक होने में ही हो
नहीं हो कोई भी निजी योजना
जब हवायें सांझी है
छूट है विचरने की सबको यहाँ धरती और आकाश में
फ्लू वायरस तक भेद नहीं करते अँधेरे और प्रकाश में
यहीं की मिट्टी से उपजा अन्न
इसी की समझ से बना.. मन !

और.. अच्छा होने का अर्थ है
जो सबको आनंदित करे
एक खिला हुआ फूल ज्यों
आँखों से बहता हुआ प्रेम झरे
पूरी बात सुने बिना
जवाब न देना ..  सोच भी न जगाना
सीख ली हो प्रतीक्षा करने की कला बिना अधीर हुए
तब जीवन हो जाता है सहज
मरण रह जाता है शब्द महज !

बुधवार, जुलाई 10

तुम जाओ खिल


यह कविता उन सभी माँओं के नाम समर्पित है जिनके प्रथम पुत्र का इस माह जन्मदिन है 
तुम जाओ खिल 


जब अकेलापन खले था
समय भी काटे न कटता
दूर अपनों से बनाया
नीड़ भी कोमल अभी था
प्रेम से पहचान भी न थी पुरानी
घर नया, साथी नया था
स्वप्न तब देखा तुम्हारा
एक जीती जागती कविता से तुम
आ गये नव रंग भरने जिंदगी में
गूँजती किलकारियां, रोने के स्वर
गोद में फिर ले तुम्हें जागे पहर
आज भी सब याद है वह खिलखिलाना
जरा सी फटकार पर आँसू बहाना
आज फिर वही तिथि आयी
बारिशों के मध्य आती दस जुलाई
हो सबल, सुखमय बनी जीवन डगर
साथ देने को है प्यारी हमसफर
भाव मन में सदा देने का ही रखना
रात जल्दी सो सुबह जल्दी ही जगना
सीख बस इतनी सी देते हम तुम्हें
दी हैं हजारों नेमतें तुमने हमें
सत्य के पथ के सदा राही बनो
स्वयं को अच्छी तरह से जान लो
ये दुआएं दे रहा है आज दिल
कमल जैसे जगत में तुम जाओ खिल

शुक्रवार, जुलाई 5

नमन तुझी को



नमन तुझी को 

तेरे ही कदमों में सिर यह झुकाया है
तुझमें ही नैन ने सारा जग पाया है,
तुझपे ही वारी हूँ दिल को लुटाया है
तू ही तू बस अंतर.. मन में समाया है !

आने में देर की भटकन थी राहों में
फूलों के झुरमुटे खोया उर चाहों में,
कंटक न देखे थे सुख सोया आहों में
दरिया इक बहता था तेरी निगाहों में !

तुझसे ही तन पाया तुझसे ही मिला मन
सृष्टि की रचना में तेरा ही है नर्तन,
तुझसे ही आच्छादित जग के सारे कण
अद्भुत हर वर्तन है अद्भुत अतुल सर्जन !