बुधवार, अगस्त 30

गीत अंतर में छिपा है


गीत अंतर में छिपा है


शब्द कुछ सोये हुए से
भाव कुछ-कुछ हैं अजाने,
गीत अंतर में छिपा है
सृजन की कुछ बात कर लें !

बीज भीतर चेतना का
फूल बनने को तरसता,
बूंद कोई कैद भीतर
मेघ बन चाहे बरसना !

आज दिल से कुछ रचें हम
मन नहीं यूँ व्यर्थ भटके,
तृषा आतुर तृप्त होगी
ललक जब अंतर से प्रकटे !

संग गगन आँख मींचे
आज कुछ नव गीत गाएं,
मुक्त होकर करें विचरण
सुरों के पौधे लगायें !


रविवार, अगस्त 27

किसका रस्ता अब जोहे मन



किसका रस्ता अब जोहे मन

तू गाता है स्वर भी तेरे
लिखवाता नित गान अनूठे,
तू ही गति है जड़ काया में
सहज प्रेरणा, उर में पैठे !

किसका रस्ता अब जोहे मन
पाहुन घर में ही रहता है,
हर अभाव को पूर गया जो
निर्झर उर में वह बहता है !

तू पूर्ण हमें पूर्ण कर रहा
नहीं अज्ञता तुझको भाती,
हर लेता हर कंटक पथ का
स्मृति अंतर की व्यथा चुराती !

तिल भर भी रिक्तता न छोड़े
अजर उजाला बन कर छाया,
सारे खन्दक, खाई पाटे
समतल उर को कर हर्षाया !

इक कणिका भी अंधकार की
तुझ ज्योतिर्मय को न सुहाती,
एक किरण भी हिरण्यमय की
प्रतिपल यही जताने आती !

बुधवार, अगस्त 23

अमृत बन कर वह ढलता है


अमृत बन कर वह ढलता है

उससे परिचय होना भर है
कदम-कदम पर वह मिलता है,
उर का मंथन कर जो पाले
परम प्रेम से मन खिलता है !

भीतर के उजियाले में ही
सत्य सनातन झलक दिखाता,
कण-कण में फिर वही छिपा सा 
साँस-साँस  में भीतर आता !

पहले आँसू जगत हेतु थे
अब उस पर अर्पित होते हैं
अंतर भाव पुष्प माला बन 
अंतर के तम को धोते हैं !

पात्र अगर मन बन पाए तो
अमृत बन कर वह ढलता है,
हो अर्पित यदि हृदय पतंगा
ज्योति बना अखंड जलता है !

शुभ संकल्प उठें जब मन में
भीतर इन्द्रधनुष उगते हैं,
सुंदरता भी शरमा जाये
अमल सहस्र कमल खिलते हैं !

शुक्रवार, अगस्त 18

स्वप्न देखे जगत सारा

स्वप्न देखे जगत सारा 

झिलमिलाते से सितारे
झील के जल में निहारें,
रात की निस्तब्धता में
उर उसी पी को पुकारे !

अचल जल में कीट कोई
कोलाहल मचा गया है,
झूमती सी डाल ऊपर
खग कोई हिला गया है !

दूर कोई दीप जलता
राह देखे जो पथिक की,
कूक जाती पक्षिणी फिर
नींद खुलती बस क्षणिक सी !

स्वप्न देखे जगत सारा
रात्रि ज्यों भ्रम जाल डाले,
कालिमा के आवरण में
कृत्य कितने ही निभा ले !


बुधवार, अगस्त 16

फूल ढूँढने निकला खुशबू

फूल ढूँढने निकला खुशबू

पानी मथे जाता संसार
बाहर ढूँढ रहा है प्यार,
फूल ढूँढने निकला खुशबू
मानव ढूँढे जग में सार !

लगे यहाँ  राजा भी भिक्षुक
नेता मत के पीछे चलता,
सबने गाड़े अपने खेमे
बंदर बाँट खेल है चलता !

सही गलत का भेद खो रहा
लक्ष्मण रेखा मिटी कभी की.
मूल्यों की फ़िक्र भी छूटी
गहरी नींद न टूटी जग की !

जरा जाग कर देखे कोई
कंकर जोड़े, हीरे त्यागे,
व्यर्थ दौड़ में बही ऊर्जा
पहुँचे कहीं न वर्षों भागे !

 चहुँ ओर बिखरा है सुदर्शन
आँखें मूँदे उससे रहता,
तृप्त न होता भिक्षु मन कभी
अहंकार किस बूते करता !

हर क्षण लेकिन भीतर कोई
बैठा ही है पलक बिछाये,
कब आँखें उस ओर मुड़ेगीं
जाने कब वह शुभ दिन आये !

सोमवार, अगस्त 14

कान्हा तेरे नाम हजारों

कान्हा तेरे नाम हजारों

जब नभ पर बादल छाये हों
वन से लौट रही गाएँ हों,
दूर कहीं वंशी बजती हो
 पग में पायलिया सजती हो !

मोर नाचते कुंजों में हों
खिले कदम्ब निकुंजों में हों,
वह चितचोर हमारे उर को,
कहीं चुराए ले जाता है !

कान्हा याद बहुत आता है !

भादों की जब झड़ी लगी थी
अंधियारी अष्टमी आयी,
लीलाधर ! वह आया जग में
पावन वसुंधरा मुस्कायी !

कितनी हर्षित हुई देवकी,
सुसफल तपस्या वसुदेव की,
टूटे बंधन जब प्रकट हुआ
मिटा अँधेरा जग गाता है !

कृष्ण सभी के मन भाता है !

यमुना की लहरें चढ़ आयीं
मथुरा छोड़ चले जब कान्हा,
लिया आश्रय योगमाया का
नन्दगाँव गोकुल निज माना !

नन्द, यशोदा, दाऊ, दामा
बने साक्षी लीलाओं के,
माखन चोरी, ऊखल बंधन
दुष्ट दमन प्रिय हर गाथा है !

जन-जन नित्य जिन्हें गाता है !

मधुरातिमधुरम वेणु वादन
 ग्वाल-गोपियाँ मुग्ध हुईं सुन,
नृत्य अनूप त्रिभंगी मुद्रा
  राधा संग बजी वंशी धुन !

चेतन जड़, जड़ चेतन होते
गोकुल, ब्रज, वृन्दावन पावन,
युग बीते तेरी लीला से
नित नवीन रस जग पाता है !

कृष्णा नव रस भर जाता है !

कान्हा तेरे नाम हजारों,
मधुर भाव हर नाम जगाए,
कानों में घोले मिश्री रस
माखन सा अंतर पिघलाए !

तेरी बातें कहते सुनते
तेरी लीला गाते सुनते
न जाने कब समय का पंछी,
पंख लगाये उड़ जाता है !

अंतर मन को हर्षाता है !


शुक्रवार, अगस्त 11

तिर जाओ पात से

तिर जाओ पात से

सुनो ! तारे गाते हैं
फूलों के झुरमुट.. प्रीत गीत गुनगुनाते हैं
पल भर को निकट जाओ वृक्षों के
कानों में कैसी, धुन भर जाते हैं !

देखो ! गगन तकता है
बदलियों का झुंड झूम-झूम कर बरसता है
ठिठको जरा सा.. बैठो, हरी घास पर
पा परस दिल.. कैसे धड़कता है !

बहो ! कलकल बहती है
नदिया की धारा नाच बात यही कहती है
पात से तिर जाओ नीर संग
हृदय की तृषा मिटे, छांव वह मिलती है !

जगो !  उषा जगाती है
हर भोर उसी का संदेश लेकर आती है
आतुर है प्रकृति लुटाने को
ज्योति भरे नित नवीन, अंकुर उगाती है !







शनिवार, अगस्त 5

श्रावण की पूनम

श्रावण की पूनम

गगन पर छाए मेघ
लगे हरियाली के अंबार
बेला और मोगरे की सुगंध से सुवासित हुई हवा
आया राखी का त्योहार गाने लगी फिजां !
भाई-बहन के अजस्र निर्मल नेह का अजर स्रोत
सावन की जल धाराओं में ही तो नहीं छुपा है !
श्रावण की पूनम के आते ही
याद आते हैं रंग-बिरंगे धागे
कलाइयों की शोभा बढ़ाते
आरती के शुभ थाल
अक्षत रोली से सजे भाल 
बहनों के दिल से निकलती अनमोल प्रार्थनाएं
मन्त्रों सी पावन और गंगा सी विमल भावनाएँ
चन्द्र ग्रहण कर पायेगा न कम
इस उत्सव की उजास
दिलों में बसा नेह का प्रकाश 
बहन का प्रेम और विश्वास
भाई द्वारा दिए रक्षा के आश्वास  !

गुरुवार, अगस्त 3

हर पगडंडी वहीं जा रही

हर पगडंडी वहीं जा रही

कोई उत्तर दिशा चल रहे
दक्षिण दिशा किन्हीं को प्यारी,
मंजिल पर मिलना ही होगा
हर पगडंडी वहीं जा रही !

भर नयनों में प्रेमिल आँसू
जब वे गीत विरह के गाते,
बाना ओढ़े समाधान का
तत्क्षण दूजे भी जुड़ जाते !

‘तेरे’ सिवा न कोई दूजा
कह कुछ मस्तक नहीं उठाते,
केवल खुद पर दृष्टि जिनकी
स्वयं को मीलों तक फैलाते !

कहनेवाले दो कहते हैं
राज ‘एक’ है जिसने जाना !
भेद नहीं करते तिल भर भी  
राधा, उद्धव में कभी कान्हा !