मंगलवार, अप्रैल 25

एक लघु कहानी

एक लघु कहानी


कल रात्रि पुनः स्वप्न में उसे वही स्वर्ण कंगन दिखा, साथ ही दिखी मारिया की उदास सूरत. वह झटके से उठकर बैठ गयी. एक बार उसने ईश्वर से प्रार्थना की और मन ही मन मारिया से भी क्षमा मांगी,  “नहीं, उसे उस पर जरा भी संदेह नहीं है कि उसका कीमती आभूषण उसने चुराया है.” उसे याद आया, हफ्ता भर पहले की ही तो बात है. दो दिनों के एक कोर्स के लिए उसे बाहर जाना था. सुबह-सुबह योगासन के समय उसने दोनों कंगन उतारकर कालीन पर रख दिए थे, जिन्हें रोज ही उठते समय वह पहन लिया करती थी. उस दिन न जाने किस जल्दी में वह उन्हें उठाना भूल गयी. दूसरे दिन कोर्स समाप्त होने पर उन्हें एक भोज में भी सम्मिलित होना था, जिसमें पहनने के लिए पोशाक तथा मैचिंग आभूषण वह पहले ही रख चुकी थी. सम्भवतः यही कारण रहा होगा कि उसे कंगनों का ख्याल नहीं आया और बहुत बाद में जब याद आया तो उसने बेटी को से कहा, वह उन्हें कार्पेट से उठाकर सम्भालकर रख दे. दो दिन बाद घर लौटी तो उसने इस बारे में पूछा, बेटी ने कहा उसे कालीन पर वे नहीं मिले. पतिदेव ने बारीकी से हर तरफ खोज शुरू की तो एक कंगन मिल गया, पर दूसरा नदारद था. अब उसका माथा ठनका, एक कंगन है तो दूसरा कहाँ गया. एक बाहर है तो दूसरा आलमारी या गहनों के डब्बे में कैसे जा सकता है ? यह सोचकर सारे कमरे में खोज जारी रखी पर कंगन को नहीं मिलना था, नहीं मिला.

उस दिन घर में मारिया आई थी. जो पूरे घर की सफाई करती थी. मन में एक संदेह उठा शायद उसने पड़ा देखा हो और..आज तक कभी ऐसा हुआ तो नहीं था. बेटी ने कहा भी, “इस तरह आप किसी पर इल्जाम कैसे लगा सकती हैं ?” पतिदेव ने कहा, “कितने का रहा होगा, क्यों इतना परेशान होती हो”, पर उसे लग रहा था, कितना बड़ा नुकसान हो गया, वह भी घर बैठे. पढ़ाई में भी उसका मन नहीं लग रहा था. इसी मनःस्थिति में उसने उस दफ्तर में फोन कर दिया जहाँ से मारिया को काम पर भेजा जाता था. उसने उन्हें शांत स्वरों में कहा, घर से एक कीमती वस्तु खो गयी है, उन्हें मारिया पर जरा भी संदेह नहीं है, पर वे ही बताएं कि क्या करना चाहिए. वहाँ से संदेश आया, वे मारिया को भेज रहे हैं, वह तलाशने में मदद करेगी. पर कोई फायदा नहीं हुआ. मारिया का उदास चेहरा और परेशान करने लगा. ऐसा लगा जैसे अपना दुःख उसके काँधों पर डालकर दुःख को दुगना कर लिया है. इसी तरह दस दिन बीत गये, एकाएक ख्याल आया, क्यों न अपने शेष आभूषण भी सहेज ले, सब सही सलामत तो हैं. जैसे ही वह सूटकेस खोला जिसमें फाइलों के नीचे आभूषण का डब्बा था, एक फ़ाइल के ऊपर ही पड़ा था वह कंगन.. उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं. यह कोई चमत्कार ही लग रहा था. शायद उस दिन अनजाने में उसने सूटकेस खोलकर उन्हें रखना चाहा होगा, जल्दी में एक नीचे गिर गया और एक भीतर...दिल से बोझ उतर गया, परमात्मा के प्रति धन्यवाद का भाव भी जगा. मरिया का ध्यान आया, वह यह समाचार सुनकर कितनी खुश होगी.

मारिया आज सोचकर आयी थी कि यदि कंगन नहीं मिला तो वह काम छोड़ देगी. पिछले दस दिनों से कोई दिन ऐसा नहीं गया था जिस दिन उसने कंगन के मिल जाने के लिए खुदा से प्रार्थना न की हो. वह नियमित चर्च जाती है और बचपन से ही अल्लाह के रास्ते पर चलकर अपने ईमान पर टिकी रही है. कितने ही बड़े-बड़े घरों में उसने काम किया है जहाँ कीमती सामान रखकर मालकिन स्नान करने चली जाती थीं. जहाँ आभूषण यूँ ही पड़े रहते थे पर कभी उसके मन में ख्याल भी नहीं आया, फिर इस घर में भी वह कई महीनों से आ रही है. छोटा सा हँसमुख परिवार है, मालकिन किसी परीक्षा के लिए पढ़ाई कर रही हैं. सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन उनका एक कंगन खो गया, ‘खोना’ और ‘चोरी होना’ में कितना अंतर है, और जब उसके एजेंट ने उससे यहाँ आकर खोजने के लिए कहा तो वह ख़ुशी-ख़ुशी आ गयी थी. पर यहाँ आकर घर वालों के व्यवहार से लगा कि उन्हें उस पर संदेह है और एक दिन जब जब उसने अतिरिक्त काम के लिए मना कर दिया, क्योंकि उसका ड्राइवर बाहर आ गया था, तो साहब का पारा चढ़ गया. पहले भी उसने समय न होने पर काम के लिए मना किया था पर ऐसा कभी नहीं हुआ था. घर आकर वह फूट-फूट कर रोई, क्या उन जैसों का कोई सम्मान नहीं होता, कहीं काम करने का अर्थ यह तो नहीं कि उन पर इतना भी विश्वास न किया जा सके. उसने निश्चय कर लिया अगली बार उन्हें  साफ-साफ कह देगी कि अब यहाँ काम नहीं कर सकती.


उसके लिए आज ख़ुशी का दिन था. उसे लग रहा था मारिया भी यह खबर सुनकर खुश हो जाएगी और वह सब कुछ पल में भुला देगी, पर ऐसा नहीं हुआ. विषाद के जो बीज उन्होंने दस दिनों में बोये थे उसकी फसल भी उन्हें ही काटनी थी. मारिया ने जैसे ही ये शब्द सुने, “मिल गया”..उसकी आँखों से आंसू झरने लगे और कुछ ही देर में वह फूट-फूट कर रोने लगी. वह उसे देखती रही फिर गले से लगा लिया. क्षमा मांगी पर उसके आंसूओं का जैसे बाँध ही टूट गया था. वह कुछ देर बाद शांत हुई तो उसका खुद का मन अब उदासी की छाया से घिर गया था. पिछली बार जब वह आई थी तो उसने पूछा था, “आपको मुझपर संदेह है ?” तो उसने कहा था, “नहीं, पर मैं उदास हूँ” मुझे दुःख है कि मेरा इतना कीमती सामान खो गया है.” उस दिन भी उसे दुःख हुआ होगा पर तब उसके पास यह देखने की फुर्सत कहाँ थी. आज उसका चेहरा देखकर खुद पर क्रोध आ रहा है, इसकी जिम्मेदार वह ही तो है. उसकी लापरवाही की सजा इसे व्यर्थ ही भोगनी पड़ी, उसके लोभ की सजा भी, स्वर्ण आभूषणों के प्रति उसकी आसक्ति की सजा भी. कितने आभूषण पड़े हैं जिन्हें वर्ष भर में एक बार भी पहनने का अवसर नहीं आता. परमात्मा का दिया सब कुछ है. यदि वास्तव में ही कोई वस्तु गुम हो जाये तो उसके लिए मन के चैन को खोना क्या उचित है ? और कितनी सरलता से वे घरों में काम करने वालों पर संदेह करने लगते हैं, उन्हें सम्मान न दें पर अपमान करने का क्या हक है उन्हें ? उसने एक बार फिर मारिया को गले से लगाया और भरे गले से क्षमा मांगी. 

सोमवार, अप्रैल 24

चलों संवारें वसुधा मिलकर



चलों संवारें वसुधा मिलकर 

विश्व युद्ध की भाषा बोले
प्रीत सिखाने आया भारत,
टुकड़ों में जो बांट हँस रहे
उनको याद दिलाता भारत !

एक विश्व है इक ही धरती
एक खुदा है इक ही मानव,
कहीं रक्त रंजित मानवता
कहीं भूख का डसता दानव

विश्व आज दोराहे पर है
द्वेष, वैर की आग सुलगती,
भुला दिए संदेश प्रेम के
पीड़ित आकुल धरा  झुलसती

इसी दौर में मेलजोल  के
पुष्प खिलाने आया भारत,
निज गौरव का मान जिसे है
वही दिलाने आया भारत !

ध्वजा शांति की लहरानी है
विश्व ताकता इसी की ओर,
एक एक भारतवासी को
लानी है सुखमयी वह भोर !

शुक्रवार, अप्रैल 21

नई कोंपलें जो फूटी हैं


नई कोंपलें जो फूटी हैं

कोकिल के स्वर सहज उठ रहे
जाने किस मस्ती में आलम,
मंद, सुगन्धित पवन डोलती
आने वाला किसका बालम !

गुपचुप-गुपचुप बात चल रही
कुसुमों ने कुछ रंग उड़ेले,
स्वर्ग कहाता था जो भू पर
उसी भूमि पर नफरत डोले ?

कैसा विषम काल आया है
लहू बहाते हैं अपनों का,
जिनसे अम्बर छू सकते थे
कत्ल कर रहे उन स्वप्नों का !

महादेव की धरती रंजित
कब तक यह अन्याय सहेगी,
बंद करें यह राग द्वेष का
सहज नेह की धार बहेगी !

भूल हो चुकी इतिहासों में
कब तक सजा मिलेगी उसकी,
नई कोंपलें जो फूटी हैं
क्यों रोकें हम राहें उनकी !

काश्मीर है अपना गौरव
हर भारतवासी मिल गाये,
एक बार फिर झेलम झूमे
केसर बाग़ हँसे, मुस्काए !


बुधवार, अप्रैल 19

अनजाने गह्वर भीतर हैं

अनजाने गह्वर भीतर हैं

पल-पल बदल रहा है जीवन
क्षण-क्षण सरक रही हैं श्वासें,
सृष्टि चक्र अविरत चलता है
किन्तु न हम ये राज भुला दें !

अनजाने गह्वर भीतर हैं
नहीं उजास हुआ है जिनमें,
कौन कहाँ से कब प्रकटेगा
भनक नहीं जिनकी ख्वाबों में !

फसल काटनी खुद को ही है
जितने बीज गिराए मग में,
अनजाने या जानबूझकर
कितने तीर चलाये हमने !

तीरों की शैय्या पर लेटे
भीष्म कृष्ण की राह ताकते,
सदा साथ ही रहता आया
खुद ही उससे दूर भागते !

सोमवार, अप्रैल 17

वरदानों को भूल गया मन



वरदानों को भूल गया मन

रिश्ता जोड़ रहा है कब से
 पल-पल दे सौगातें  जीवन,
निज पीड़ा में खोया पागल
वरदानों को भूल गया मन !

ठगता आया है खुद को ही
उसी राह पर कदम बढ़ाता,
शूल चुभा था, दर्द सहा था
गीत वही गम के ही गाता !

एक चक्र में डोले जैसे
बिधने की पल-पल तैयारी,
सुख का बादल रहा बरसता
दुःख की चादरिया है डारी !

 हँसते कृष्ण, बुद्ध मुस्काए
शंकर मूढ़ मति कहे जाये,
मन मतवाला निज धुन में ही
अपनी धूनी आप रमाये !

बड़ी अजब है ताकत इसकी
बीज प्रेम का, फसल वैर की,
नर्क-स्वर्ग साथ ही गढ़ता
 अपनों से भी बात गैर सी !





सोमवार, अप्रैल 3

एक रहस्य

एक रहस्य

थम जाती है कलम
बंद हो जाते हैं अधर
ठहर जाती हैं श्वासें भी पल भर को
लिखते हुए नाम भी... उस अनाम का
नजर भर कोई देख ले आकाश को
या छू ले घास की नोक पर
अटकी हुई ओस की बूंद
झलक मिल जाती है जिसकी
किसी फूल पर बैठी तितली के पंखों में
या गोधूलि की बेला में घर लौटते
पंछियों की कतारों से आते सामूहिक गान में
कोई करे भी तो क्या करे
इस अखंड आयोजन को देखकर
ठगा सा रह जाता है मन का हिरण
इधर-उधर कुलांचे मारना भूल
निहारता है अदृश्य से आती स्वर्ण रश्मियों को
जो रचने लगती हैं नित नये रूप
किताबों में नहीं मिलता जवाब
एक रहस्य बना ही रहता है..