मंगलवार, अक्तूबर 29

वर्तमान का यह पल

वर्तमान का यह पल 

घट रहा है जीवन अनंत-अनंत रूपों में 
 वर्तमान के इस छोटे से पल में 
सूरज चमक रहा है इस क्षण भी 
अपने पूरे वैभव के साथ आकाश में 
गा रहे हैं पंछी.. जन्म ले रहा है कहीं, कोई नया शिशु 
फूट रहे हैं अंकुर हजार बीजों में 
गुजर रही है कोई रेलगाड़ी किसी सुदूर गांव से 
निहार रही हैं आँखें क्षितिज को किसी किशोरी की जिसकी खिड़की से 
वर्तमान का यह पल नए तारों के सृजन का साक्षी है 
पृथ्वी घूम रही है तीव्र गति से सूर्य की परिक्रमा करती हुई 
यह नन्हा क्षण समेटे है वह सब कुछ 
जो घट सकता है कहीं भी, किसी भी काल खंड में 
सताया  जा रहा है कोई बच्चा 
और  दुलराया भी जा रहा हो
कोई वृक्ष उठाकर कन्धों पर ले जा रहे होंगे कुछ लोग 
कहीं तोड़ रहे होंगे फल कुछ शरारती बच्चे 
इसी क्षण में रात भी है गहरी नींद भी 
स्वप्न भी, सुबह भी है भोर भी 
जो जीना चाहे जीवन को उसकी गहराई में 
जग जाए वह वर्तमान के इस पल में 
जिसमें सेंध लगा लेता है अतीत का पछतावा 
भविष्य की आकांक्षा, कोई स्वप्न या कोई चाह उर की 
हर बार चूक जाता है जीवन जिए जाने से 
हर दर्द जगाने आता है 
कि टूट जाये नींद और जागे मन वर्तमान के इस क्षण में...

मंगलवार, अक्तूबर 8

एक पाती दुलियाजान के नाम



एक पाती दुलियाजान के नाम

बरसों पहले एक भीगी शाम  
काली धुली सड़क पर आहिस्ता से कदम रखे
तेल के कुँओं को गंध कहीं दूर थी
पर.. बादलों को गुलाबी करती
आग की लपटें दूर से दिखाई दे रही थीं
 देखा फिर झरता हुआ आसमान देर रात तक
गेस्टहाउस के कमरे की खिड़की से
हरियाली का एक विशाल समुन्दर था सामने
जब अगली सुबह गोल्फ कोर्स तक नजर गयी
उस दिन से आज तक...कोई भोर ऐसी नहीं हुई
जब इस तेल नगरी की सड़कों को
हमारे कदमों ने न नापा हो
फूलों से लदे पेड़ों को न सराहा हो
आकाश पर रंग बिखेरते बादलों को न निहारा हो
गन्धराज की सुवास हो
या शेफाली की मदमस्त करने वाली ख़ुशबू
अमलतास के फूलों की स्वर्णिम झालरें हों
या सुर्ख लाल गुलमोहर से लदे पेड़
बैंगनी अजार हों या गुलाबी कंचन..
कदम्ब की डालियाँ हों या सुंदर उपवन
दुलियाजान की हर बात निराली है
यहाँ की हवा में कोई जादू है शायद
या फिर इसकी फितरत ही मतवाली है
जालोनी क्लब के गलियारे और पुस्तकालय
ऑडीटोरियम या तरणताल..याद आते ही खुल जाता है
भीतर स्मृतियों का एक संसार विशाल
लेडीज क्लब की मीटिंग्स और संगीत के भव्य आयोजन
न जाने कितने कलाकारों के हुए जहाँ दर्शन
विदाई समारोहों में नम हुईं आँखें
जीवन के चौंतीस बरस जहाँ बीते
उस जमीन के जर्रे-जर्रे को सलाम है
यहाँ की हर गली हर कूचे को प्रणाम है !

शुक्रवार, अक्तूबर 4

जब कभी भारी हो मन


जब कभी भारी हो मन

जब कभी भारी हो मन
लगे, न जाने कैसा बोझ रखा है मन पर
कारण कुछ भी हो....तब यही सोचना होगा
शायद पूर्व के संस्कार जागृत हुए हैं
या कोई कर्म अपना फल देने को उत्सुक है
अथवा तो बोये थे जो बीज अतीत में.. वे अंकुरित हो रहे हैं  
जब जीवन कुछ सवाल लेकर सम्मुख खड़ा हो
हल्का था जो मन भारी बड़ा हो
शिरायें तन गयी हों मस्तिष्क की
आघात कर रहा हो हृदय पर कोई
हो कंधों में तनाव और उत्साह की कमी
चाहिए जब एक विश्राम गहरा... एक नींद सुकून भरी !
एक मस्ती भीतर... एक शांति अचाह भरी !
पर सिर्फ चाहने भर से कहाँ कुछ होता है ?
उसके लिए सतत प्रयासरत रहना पड़ता है
जो हो रहा है उसे पूरे मन से स्वीकारना होता है
या फिर छोड़ देना है सब कुछ अनाम के चरणों में
हर नकारात्मक विचार एक नये दु:स्वप्न की तैयारी है
पर इन सबको देखने वाला साक्षी तो वैसा का वैसा है
यह सब कुछ घट रहा है उसकी ऊर्जा से ही
जो कभी खत्म होने में नहीं आती... वह ऊर्जा अनंत है
युगों-युगों से काँप रहे हैं अर्जुनों के गांडीव
पर कृष्ण अचल... निर्द्वन्द्व है !

मंगलवार, अक्तूबर 1

अबोला


अबोला

कितनी शांति है घर में
जब से तुमने अबोला धर लिया है
कोई टोका-टाकी नहीं बात-बात पर
नहीं खड़े रहते अब सिर पर चाय, खाने के वक्त में
एक मिनट की भी देरी होने पर
अब चुपचाप स्वयं ही ले लेते हो समझदार व्यक्ति की तरह
अब लिखने का वक्त भी मिल जाता है और पढ़ने का भी
घर में सब धीरे-धीरे बातें करते हैं
अब कुछ सिद्ध नहीं करना है किसी को
जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकारना है
सो स्वीकार लिया है तुम्हारे मौन को सहज होकर
अब नहीं बढ़ती दिल की धड़कन इस ख़ामोशी पर
क्योंकि बचाती है कितने ही छोटे-छोटे भयों  
और बेवजह की हड़बड़ी से
 अब घटती हैं शामें धीरे-धीरे
अब होती हैं रातें भी सुकून भरी
अब दौड़ नहीं लगानी पडती हर बार तुम्हारे साथ चलने की
अब सब कुछ चल रहा है जैसे उसे होना चाहिए सहज अपने क्रम से
तुम्हें भी अवश्य ही भा रहा होगा यह मौन
क्योंकि जोर से कहे वे शब्द कर जाते होंगे आहत तुम्हें भी तो
अति आग्रह से की गयी फरमाइश या आदेश
भर जाता होगा तुम्हें भी तो असामान्य उत्तेजना से
ईश्वर से प्रार्थना है शांति मिले तुम्हें अपने भीतर
ताकि सीख लो कि ऐसे भी जिया जाता है
रेल की पटरियों की तरह समानांतर एक दूसरे के
बिना उलझे और बिना उलझाए
करते हुए सम्मान अन्य की निजता का
कितना अच्छा हो यदि खत्म भी हो जाये तुम्हारा अबोला
 सिलसिला चलता रहे ऐसा ही घर का !