बुधवार, अप्रैल 26

कविता खो गई है !

कविता खो गई है !


प्रेम नहीं बचेगा जब जीवन में 

कविता खो जाएगी 

काव्य प्रेम का प्रस्फुटन है 

तुलसी, सूर, कबीर, नानक 

या मीरा हो 

प्रेम के मारे हुए थे 

कोई राम के प्रेम का दीवाना 

कोई कृष्ण का चाकर 

किसी को साहेब रिझाना था 

किसी को ओंकार गाना था 

प्रेम जब भीतर न समाये तो 

काव्य बन जाता है 

चाहे ख़ुद से हो या जगत से 

ख़ुद की गहराई में 

ख़ुदा से हो जाती है मुलाक़ात 

कण-कण में वही नज़र आता  है

इसलिए कविता की फ़िक्र छोड़ दो 

पहले भीतर प्रेम जगाओ 

मन का आँगन जरा बुहारो 

श्रद्धा दीप जलाओ 

प्रियतम की मूरत रखकर 

प्रीत सुगंध बहाओ 

तब फूटेगी काव्य की सरिता 

स्वयं को आप्लावित कर 

जगत में बहेगी 

हर पीड़ा, हर दुख मुस्कुरा कर सहेगी ! 


शनिवार, अप्रैल 22

उर नवनीत चुराने वाला

उर नवनीत चुराने वाला 


श्वासों का उपहार मिला है 

जीवन की हर घड़ी  अनमोल, 

प्रेम छुपा हर इक अंतर में 

 कृष्ण  की गीता के हैं बोल !


मेरा ही बन, नमन मुझे कर 

मन, मेधा मुझको कर अर्पित, 

मुक्त हुआ फिर विचर जहां में 

हो मेरी माया से ऊर्जित !


तेरा कुशल-क्षेम मैं धारूँ

सुख-दुख के तू ऊपर उठ जा, 

युग-युग के हम  मीत  अमर हैं  

मुझे याद सब तू है भूला !


कण-कण में मेरी आभा है 

रवि, चन्द्र, तारों की चमक भी, 

मेरी  कुदरत से प्रकटी है 

सृष्टि में मति, प्रज्ञा आदि भी !


कैसे करें न सदा शुक्रिया  

जो कान्हा आनंद बिखेरे, 

उर नवनीत चुराने वाला 

मृदु  भावों की बंसी टेरे !


व्याप्त रहा है भीतर बाहर 

सूक्ष्म लोक के राज खोलता, 

गुरु बनकर मार्ग दिखलाए 

सखा बना वह  संग  खेलता !


बुधवार, अप्रैल 19

श्वास-श्वास में सिमरन हो जब

श्वास-श्वास में सिमरन हो जब


श्वासों में मत भरें सिसकियाँ 

हैं सीमित उपहार किसी का, 

दीर्घ, अकंपित अविरत  गति हो 

इनमें कोई राज है छुपा !


श्वास-श्वास में सिमरन हो जब

वाणी में इक दिन छलकेगा, 

मन को बाँधे ऐसी डोरी 

श्वासों से ही मधु बरसेगा !


श्वासों का आयाम बढ़े जब 

सारा विश्व समाता इनमें, 

एक ऊर्जा है अनंत जो 

ज्योति वह प्रदाता जिसमें !


श्वासों की माला पहनी है 

भरे सुगंधि मधुराधिपति की, 

इनकी गहराई में जाकर 

द्युति निहारें हृदय  मोती की !



रविवार, अप्रैल 16

पलकों में है बंद ख़्वाब इक


पलकों में है बंद ख़्वाब इक 


झर-झर झरता बादल नभ से 

सम्मुख दरिया भी बहता है,

सब कुछ पाकर भी इस दिल का 

प्याला ख़ाली ही रहता है !


जाने किसको ढूँढ रही हैं 

 दिवस-रात्रि स्वप्निल दो आँखें  

जाने कैसे बिगड़ी जातीं  

 बनते-बनते सारी बातें ! 


हर सुख पाया है इस जग का

फिर भी इक कंटक  चुभता है, 

पलकों में है बंद ख़्वाब इक 

अक्सर ही आकर तकता है ! 


पूर्ण नहीं होती यह कैसी 

प्यास जगी है अंतर्मन में, 

जीवन सूना-सूना लगता 

थिरता कब  आयी जीवन में !


कसक न दिल की दूर हुई है 

 कैसे होगी यह भान नहीं, 

सुख-सुविधा के अंबार लगे  

ख़ुद का ही नर को ज्ञान नहीं ! 


शनिवार, अप्रैल 15

एक सच


सच 


छिपा होता है 

सच स्वप्नों में भी 

और  दिखाई दे जाता है झूठ

हक़ीक़त में कभी 

  कितना सच है स्वप्न मृत्यु का

क्योंकि अवश्यंभावी है वह 

और स्वप्न जान पड़ता है 

उसके बाद का जीवन !



एक 


दो मन एक सा सोचते हैं 

दुनिया के दो हिस्सों में 

क्योंकि आये हैं 

एक ही स्रोत से 

एक है उनका उद्देश्य 

 निर्धारित किया है

 जो नियति ने

 एक से शब्द निकलते हैं 

मिलने पर मुख से मित्रों के कभी-कभी 

क्योंकि एक है वाणी का स्रोत भीतर 

हर शै एक ही ओर इशारा करती है 

ख़ुशी का स्वाद एक है 

जिसे लोग चखना चाहते हैं !


शुक्रवार, अप्रैल 14

आये पर्व अनोखे


आये पर्व अनोखे

जब बजे ढोल, नाचते  कृषक

झूमी फसलें, ह्रदय में पुलक ! 


‘नब बर्ष’  बंगाल में आये

‘पुत्तांडु’ सभी तमिल मनायें !


केरल में पावन  ‘पूरम विशु’

असम में ‘रोंगाली  बीहू’!


गुरूद्वारों में द्युति छायी

तब प्यारी बैसाखी आयी !


धूम मचाती भाती हर मन

जन्म खालसा हुआ इसी दिन !


अमृत छकया पंच प्यारों ने

गुरुसाहब की याद दिलाने !


भँगड़ा  गिद्दा होड़ लगाते

घर बाहर रोशन हो जाते !


सब के मन पर मस्ती छायी  

तब प्यारी बैसाखी आयी !


बुधवार, अप्रैल 12

एक प्यास जो अंतहीन है


एक प्यास जो अंतहीन है


एक ललक अम्बर  छूने की 

एक लगन उससे मिलने की, 

एक प्यास जो अंतहीन है 

एक आस खुद के खिलने की !


सत्य अनुपम मन गगन समान 

उसमें मुझमें न भेद कोई, 

जल में राह मीन प्यासी क्यों 

खिल जाता वह ठहरा है जो !


पाने की हर बात भरम  है 

जो भी अपना मिला हुआ है, 

बनने की हर आस भुलाती 

हर उर भीतर खिला हुआ है !


भीतर ही विश्राम सिंधु है 

भर लें जिससे दिल की गागर, 

गर उससे तृप्ति नहीं पायी 

परम भेद कब हुआ उजागर !


शनिवार, अप्रैल 8

मिलन

मिलन 

एक कदम बढ़ाओ तो  
वह हज़ार कदमों से चलकर आता है 

आवाज़ लगाने भर की देर है 

भेज देता है देवदूत सा कोई जन 

जिसका सान्निध्य 

शीतल जल और अग्नि एक साथ है 

जो जला डालता है सारे बंधन 

और मिटा देता उनकी राख भी

बहा निर्मल ज्ञान गंगा 

 खिल जाते हैं अंतरउपवन

प्रेम की पूर्णता के रूप में 

 उगता है चाँद

बिखरी है जिसमें

 शरद की ज्योत्सना   

बरसती हैं जल धाराएँ 

 सावन-भादों की 

मानो झर रही हो नभ से शांति और शुभता 

अनंत से मिलन का यही तो परिणाम है 

कि वह हर जगह है 

हिमालय की गुफाओं में ही नहीं 

अंतर गह्वर में भी, क्योंकि 

भीतर ही काशी है भीतर ही कैलाश !


गुरुवार, अप्रैल 6

अमिलन


अमिलन

लाख मिलाएँ

 शक्कर और रेत 

जैसे नहीं मिलते 

आत्मा और देह वैसे ही हैं 

अंतत: शक्कर भी 

परमाणुओं से बनी है 

रेत की तरह 

देह भी बनी है 

उसी तत्व से जिससे 

आत्मा गढ़ी है 

स्वयं भू ! चिन्मय !

और कोई चुनाव कर सकता है 

सदा ही 

जो स्थूल है 

जिसे देखा, सुना, सूंघा जा सकता है 

दूजी वायवीय जिसमें डूबकर 

वही हुआ जा सकता है 

एक में खुद पर चार चाँद

लगाए जा सकते हैं 

एक में खुद को मिटाया जाता है 

लगाओ लाख तमग़े 

मृत्यु का एक झटका 

सब छीन लेता है 

मिटकर जो मिलता है 

वह रहता है मृत्यु के पार भी 

इसीलिए वेद गाते हैं 

तुम हो वही ! 

मंगलवार, अप्रैल 4

मन - छाया


मन - छाया


छायाओं से लड़कर कोई 

जीत सका है भला आजतक 

सारी कश्मकश 

छायाएँ ही तो हैं 

उनके परिणामों से बंधे 

हम जन्म-जन्म गँवा देते हैं 

ज़रूरत है प्रकाश में खड़े होने की 

तब न कोई कारण है न परिणाम 

न कोई चाहत न अरमान 

मन को ख़ाली करना ही 

ज्योति की शरण में आना है 

सारा उहापोह जो न जाने 

कब से एकत्र किया है भीतर 

इसके-उसके,  

अपनों-बेगानों, 

दुनिया-जहान और 

खुद की कमज़ोरियों के प्रति 

सभी छायाएँ हैं मात्र 

जिन्हें सच मान बैठा है मन 

सच करुणा व प्रेम का वह स्रोत है 

जो प्रकाश से झरता है 

सहज आनंद का स्वामी 

जहाँ निर्द्वंद्व बसता है 

जो शिव का वास है 

वही तो देवी का कैलाश है !


शनिवार, अप्रैल 1

आनंदित है कण-कण जड़ का

आनंदित है कण-कण जड़ का 


निशदिन मेघ प्रीत का तेरी 

बरस रहा है झर-झर झर-झर, 

ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ 

दसों दिशाओं  से नित आकर !


जिस पल बनी पदार्थ ऊर्जा 

नवल सृष्टि का जन्म हुआ था,

रूप अनंत धरे जाती है 

मानो कोई खेल चल रहा !


आनंदित है कण-कण जड़ का 

चेतन इसमें छिपा हुआ है, 

कुदरत का सौंदर्य अनूठा 

मधुरिम लय में बँधा हुआ है 


अंतर्मन में गुँथे हुए ज्यों 

श्रद्धा, प्रेम आस्था के स्वर, 

तू ही हमें राह दिखलाता 

खोज निकालें इनको भीतर !


सुख दे खुद  के निकट बुलाए 

दुःख दे उर में विरह जगाए, 

सहज बने कैसे यह जीवन 

पल-पल इसका मार्ग दिखाए !


कैसे करें शुक्रिया तेरा 

तुझसे ही अस्तित्त्व टिका है, 

शांति, प्रेम, सुख सागर बनता 

जो दिल तेरे लिए बिका है !