गुरुवार, दिसंबर 31

सांझी धरती गगन एक है

सांझी धरती गगन एक है
है सृष्टि क्रम अनंत काल से 
चाँद-सितारे भी युग-युग से, 
किन्तु पुरातन कभी न होते 
पल-पल खुद को नूतन करते !

जंगल, वन, पर्वत, पठार भी 
मृत होकर नव जीवन धरते, 
सिन्धु पुन: पुन: हो आप्लावित 
बादल नित नव सर्जन करते !

पशु, पंछी, मानव के तन भी
जन्मते, गिरते, पुन: पनपते, 
किन्तु एक से सब दुनिया में 
मन को इक चौखट में रखते ! 

अपना-अपना खुदा लिए हर 
मन न स्वयं को कभी बदलता, 
धर्म-जातियों के नामों  पर 
अब भी भीतर नफरत रखता !

जाने क्या हासिल कर लेगें  
अब भी रक्त बहाया करते, 
नए वर्ष में यही सिखाने 
जगत घिरा सांझी पीड़ा से ! 

सांझे सुख-दुख हैं दुनिया के 
सांझी धरती, गगन एक है,
एक ही रब है एक चेतना 
नाम-रूप धारे अनेक है ! 
 

सोमवार, दिसंबर 28

अबूझ है मन

अबूझ है मन 

मुँह लगे सेवक सा कब 
हुकुम चलाने लगता है 
पता ही नहीं चलता 

कभी सपने दिखाता है मनमोहक 

कि आँखें ही चौंधियाँ जाएँ

और कभी आश्वस्त करता है 

पहुँचा ही देगा मंजिल पर 

मन की मानें तो मुश्किल 

मनवाएँ उससे यह उससे भी बड़ी 

बुद्धि भी है थक-हार कर खड़ी 

नींद में दुनिया की सैर कराता है 

जागने पर माया के फेर में पड़वाता है 

मासूम सा बना भजन भी गाता है 

कभी पुरानी गलियों में लौटा ले जाता है 

यह पिंजरे का पंछी 

उड़ना ही भूल गया 

इक आस की सींक पर बैठे-बैठे झूल गया

इसको तो बस देखते भर रहना है 

न भागना इससे, न डराना 

निरपेक्ष होना है 

यह मन भी उसी की माया है 

जिसने यहाँ सभी को जाया  है ! 

गुरुवार, दिसंबर 24

अब जब कि

अब जब कि

अब जब कि हो गयी है सुबह 
क्यों अंधेरों का जिक्र करें, 
चुन डाले हैं पथ से कंटक सारे 
क्यों पावों की चुभन से डरें !
अब जब कि छाया है मधुमास 
अँधेरी सर्द रातों को भूल ही जाएँ, 
खिले हैं फूलों के गुंचे हर सूं
क्यों दर्द को गुनगुनाएं !
अब जब कि धो डाला है मन का आंगन 
आँधियां धूल भरी क्यों याद रहें,
सुवासित है हर कोना वहाँ 
क्यों कोई फरियाद आये ! 
अब जब कि हो गया है मिलन 
विरह में नैन क्यों डबडबायें 
बाँधा है बंधन अटूट एक 
भय दूरी का क्यों सताए ! 

 

मंगलवार, दिसंबर 22

जब नया साल आने को है

जब नया साल आने को है 
 हर भोर नयी हर दिवस नया 
हर साँझ नयी हर चाँद नया,
हर अनुभुव भी पृथक पूर्व से 
हर स्वप्न लिए संदेश नया !

हम बंधे  हुए इक लीक चलें 
प्रतिबिम्ब कैद ज्यों दर्पण में,
समय चक्र आगे बढ़ता पर 
ठिठक वहीं रह जाते तकते !

नयी चुनौती, नव उम्मीदें 
करें सामना नई ललक से, 
बीता कल जो कहीं खो गया 
आने वाला उसे सराहें !

जब नया साल आने को है 
नव आशा ज्योति जगे उर में, 
जो सीख मिली धारें, मन को 
खोलें हर दिन नव चाबी से !


शनिवार, दिसंबर 19

जाता हुआ साल

 जाता हुआ साल 
कोरोना का महाआतंक छाया रहा पूरे साल 
शताब्दी की प्रथम महामारी से 
आज भी दुनिया है बेहाल !
करोड़ों हुए संक्रमित, लाखों ने जान गंवायी
अर्थव्यवस्थाएं पटरी से उतरीं न जाने कैसी आफत आयी !
उम्मीद टिकी है वैक्सीन पर 
राजनीतिक उठापटक चलती रही बदस्तूर 
ट्रम्प हुए विदा बिदेन ने कमान संभाली
कृषक आंदोलन देश में जारी
जलवायु परिवर्तन ने भीषण रूप भी दिखाया
कहीं भयंकर गर्मी झेला तूफानों का साया 
गूगल, फेसबुक और अमेजन का राज बढ़ा
टेक्नोलॉजी के सहारे ही दुनिया का काम चला 
घर पर ही स्कूल बना, ज़ूम ने मिलाया 
कम्प्यूटर स्क्रीन पर बच्चों को पढ़ाया 
स्टेडियम खाली रहे खिलाड़ी नदारद 
वापस आये भी तो मिले नहीं दर्शक 
अच्छी बातें भी हुईं जाते हुए साल में 
नदियां स्वच्छ, हवाएं भी साफ हुई 
गीत बने, अनगिन कहानियाँ रची 
परदेसी घर लौटे, नित नए पकवान बने 
जिनको पहले वास्ता ना था रसोईघर से
वे दालों को पहचानने लगे 
धनिये और जीरे में फर्क न थे जानते 
वे अजवाइन को भी जानने लगे
सब कुछ हुआ ऑनलाइन नौकरी भी,  शादियाँ भी 
चेहरों पर मास्क लगाये, दो गज की दूरी भी 
देखें  ऊंट किस करवट  बैठता है 
नया साल गठरी से राज क्या खोलता है ! 

शुक्रवार, दिसंबर 18

बीज एक यात्रा

बीज एक यात्रा 
सुबह बीज है
जिस पर दिन का फल लगता है
ऐसे ही जैसे शैशव बीज से
जीवन लता फैलती है
वर्तमान है वह बीज
जिसमें भावी विशाल वटवृक्ष छिपा है
सुबह यदि खो गयी
तंद्रा-अलस में डूबी
तो दिन उखड़ा-उखड़ा सा रहेगा
अधूरापन सताएगा
शैशव को नहीं  संभाला गया
कोमल किन्तु सुदृढ़ हाथों से
न हुआ संस्कारित तो जीवन दिशाहीन हो
इसमें अचरज  ही कैसा  ?
बच्चे जो पलते हैं सड़कों पर
कठोर होता है बचपन जिनका
क्या बदल नहीं जाएंगे उद्दंड युवा और उदास वयस्कों में
वर्तमान के बीज से ही भावी पनपता है
यदि आज हो रहा है तृप्ति का अहसास सार्थक कृत्यों द्वारा
तभी कल बाहें फैलाए मिलेगा
कर्मशील है अब तो कल भी हाथ काम करते-करते ही विदा लेंगे
वर्तमान मनु है तो भविष्य देव
आज पुरुषार्थ है तो भावी प्रारब्ध
जैसा दिन होगा रात होगी वैसी
ऊर्जा से भरा दिवस ही विश्राम से भरी रात्रि का जनक है !

बुधवार, दिसंबर 16

चिदाकाश में भरे उड़ान

चिदाकाश में भरे उड़ान 

मोह तमस का जाल बिछा है 
हंस बना है उसका कैदी, 
सुख के दाने कभी-कभी हैं 
उहापोह है घड़ी-घड़ी की !

टूटे जाल मुक्त हो हंसा 
चिद आकाश में भरे उड़ान, 
गीत गूँजते कण-कण में जो 
सुनकर मगन हुआ अनजान ! 

देह में रह विदेह बना जो 
राज वही जीवन का जाने, 
जल में नाव, नाव में जल ना  
यही कह गए सभी सयाने !

देह छूटती जाती पल-पल 
इक दिन उड़ कर जाना होगा, 
तब तक जग का मेला देखेँ 
जो ना कभी पुराना होगा !

ज्योति मिले ज्योति संग जिस पल  
याद उसी की बनी रहे उर, 
सहज नदी यह बहती जाती 
पहुँचेगी इक दिन तो सागर !
 

मंगलवार, दिसंबर 15

ध्यान में

ध्यान में 
 ज्यों बेदखल कर देता है 
कोई पिता नाकारा संतति को 
अपनी वसीयत से 
कई बार समझाने पर  
राह पर न आना चाहे जो 
वैसे ही नादां मन जब तक नहीं किया जाता बेदखल 
चैन नहीं मिलता पल भर 
अतीत की स्मृतियों को उभारेगा
नए-नए सुझाव और विचार देगा उन्नति के 
पूर्वाग्रहों और धारणाओं से बाँधना चाहेगा 
ऊँच-नीच समझाएगा 
वैसे जैसे पुत्र रोयेगा -गिड़गिड़ायेगा 
 कठोर होना पड़ता है पिता को 
ऐसे ही झटक देना होगा विवेक से 
और स्वयं में पूर्णतया का अनुभव कर
 अपनी ही गरिमा में ठहरना सीखना होगा 
मन तो बच्चा है लाख समझाओ 
वही उसकी फितरत है 
वह बड़ा होना नहीं चाहता !
 

सोमवार, दिसंबर 14

कोई नानक ध्यान लगाता

 कोई नानक ध्यान लगाता 

हम भीतर से अनभिज्ञ सदा 
बस बाहर-बाहर जीते हैं, 
अंतर पटल उलझने देते 
तन हित पट रेशम सीते हैं !

जब बाहर थे अम्बार लगे 
अतुलित दौलत धन वैभव के, 
भीतर कुछ घटता जाता था 
जिसको ना इसमें सार लगे !

जब इर्द-गिर्द सीमाएं रच 
रिश्तों को उनमें कैद किया, 
कुछ टूट गया था भीतर भी 
जब जीवन पर सन्देह किया !

उर डरा कभी सिर भी थामा
तन ने कितने सन्देश दिए, 
मुस्कान कहाँ वह भीतर की 
ऊपर-ऊपर लब  हँसा किये !

मस्तिष्क के तंतु रोते हैं 
धड़कन दिल की जब बढ़ जाये, 
कम्पन अंगों में होता है
हम लेकिन देख कहाँ पाए !

भीतर की रग-रग से वाकिफ 
कोई नानक ध्यान लगाता, 
इक-इक रेशे को पोषित कर 
बाहर भी सुख-चैन लुटाता ! 

 

शनिवार, दिसंबर 12

सुख-दुख

सुख-दुख 
जो भी खुद से जुदा होता है 
करीब उसके खुदा होता है 

बनी रहती है जब तक भी खुदी 
कहाँ कोई खुद से मिला होता है 
पहले मिलना फिर बिछड़ना खुद से 
यही इबादत का सिलसिला होता है 

उलट दो ‘खुद’ को तो बन जाता है  ‘दुख’
 छिपा था सामने आ जाता है 
सुख के पीछे खड़ा ही था खुस(खुश)  
रब के साये में सुकून सदा होता है 

हर्फों की माया है यह जहान सारा
‘चुप’ में ही वह मालिक बसा होता है 
वही सबसे करीब है उसके 
जिसकी फितरत में होना फना होता है

 


गुरुवार, दिसंबर 10

हरेक शै के दो पहलू हैं जनाब

 हरेक शै के दो पहलू हैं जनाब

'जो' है खुशी का सबब किसी के लिए 

कुछ उससे ही दुखों के वस्त्र सिले जाते हैं

जमाने में फूल भी तो खिलते हैं

महज फितरत से कांटे ही चुने जाते हैं

दी है खुदा ने पूरी आजादी 

कोई जन्नत, कुछ जहन्नुम से दिल लगाते हैं

शब्द सारे उन्हीं स्वर-वर्ण से बने 

कोई वंदन तो कुछ क्रंदन में पिरोते हैं

मिले हर माल कुदरती बाजार में 

कोई सुकून तो कुछ झंझट लिए जाते हैं

नजर अपनी ही धुंधली है मगर

इल्जाम जमाने को दिए जाते हैं

नजर बदली तो नजारे बदलते 

रंगीन चश्मे लगा श्वेत शै चुने जाते हैं

मुक्कमल आकाश छिपाए भीतर

लोग  पिंजरों में जिंदगी बिताए जाते हैं 

दरिया बहते समंदर ठाठें मारे 

जाने क्यों प्यास दिल से लगाए जाते हैं 

कौन कहता है, रब नहीं, बुद्ध ने कहा

स्वयं बंद आँखों में बसाए जाते हैं !


बुधवार, दिसंबर 9

मन और मौन

मन और मौन
शब्दों की गलियों में गोल घूमता है
मन का मयूर यह व्यर्थ ही झूमता है
 
अनंता-अनंत जो चहुँ ओर व्याप्त रहा
नाप लिया हो जैसे ‘अम्बर’ नाम दिया
 
‘मन’ भी आकाश सा कोई न माप सका
स्वयं सीमित होकर शब्द आकार लिया
 
शब्द अभी पीड़ा दें पल में सहला दें
स्वयं ही रचे मन शब्दों से बहला दे
 
नाम-रूप भरम में नाम ही बंधन है
मौन आश्रय जिसे पार ही चिरंतन है  

मंगलवार, दिसंबर 8

एकम् सत्य

एकम् सत्य 
चाहो किसी भी रूप में 
किसी आकार में 
अथवा अरूप या निराकार 
वह सबका है 
नहीं अधिकार किसी को भी 
करे आहत अन्य की भावना 
आक्रांता बन तोड़े आस्था के स्थल 
मुखरित होता है वह चैतन्य 
भक्ति, करुणा और प्रेम में 
फिर क्योंकर एक का समर्पण
दूसरे की आँख में खटकता है 
सत्य एक ही है पर अनेक मार्गों से मिलता है 
किसी पुष्प गुच्छ की मानिंद 
गुँथे हैं सभी पंथ और मत 
मानवता के मंदिर में 
हरेक अपनी महिमा में आप ही महकता है 
फिर भी पूरक है दूजे  का 
विरोधी नहीं 
जिस दिन स्वीकार होगा 
उसी प्रकार जैसे
 स्वीकारते हैं संगीत और शिल्प 
आनंद लेते हैं विविधताओं का 
हर पंथ अनूठा है 
सार सबका एक है 
प्रेम जगाना है अंतर में 
आनंद उसी की परिणति है !

 

सोमवार, दिसंबर 7

जो घर खाली दिख जाता है


जो घर खाली दिख जाता है 
एक-एक कर चुन डाले हैं 
राह के सारे पत्थर उसने, 
कंटक चुन-चुन फूल उगाये 
हरियाली दी पथ पर उसने ! 

ऊपर-ऊपर यूँ लगता है 
पर भीतर यह राज छिपा है, 
वह खुद ही आने वाला है 
उस हेतु यह जतन किया है ! 

जिस दिल को चुनता घर अपना 
उसे संवारे सदा प्रेम से, 
जो घर खाली दिख जाता है 
डेरा डाले वहीं प्रेम से ! 

उसकी है हर रीत निराली  
बड़ा अनोखा वह प्रियतम है, 
एक नयन में देता आँसू 
दूजे में भरता शबनम है ! 

वह जो है बस वह ही जाने 
हम तो दूर खड़े तकते हैं, 
वही पुलक भरता अंगों में 
होकर भी हम न होते हैं ! 
 

शुक्रवार, दिसंबर 4

लहराएगा मुक्त गगन में

लहराएगा मुक्त गगन में


अभी खोल में ढका बीज है 
अभी बंद है उसकी दुनिया, 
उर्वर कोमल माटी  पाकर 
इक दिन सुंदर वृक्ष बनेगा !

जल से निर्मल भरे ताजगी
धरती से गर्माहट उर में, 
नृत्य पवन से भर-भर पल्लव  
लहराएगा मुक्त गगन में !

शाखाओं पर पंछी आकर 
बैठेंगे मृदु गान सुनाने,
फूलों के खिलने की आशा 
उस पादप के मन अंकुराने !

वही बीज फिर फूल बना नव
खिल जाएगा रूपरंग में, 
भँवरे तितली कीट अनेकों 
गुनगुन गाकर उसे रिझाएं 

मिलन घटेगा अस्तित्व से 
फल बनकर फिर बीज धरेगा, 
जहाँ से आ क्रीड़ा रची यह 
उस भू में रोपा जाएगा !

छुपा बीज में राज सृष्टि का 
खिलकर मुक्त हास जो बांटे, 
तृप्त हुआ वह उर मुस्काता 
सहज गुजर जाता इस जग से !

गुरुवार, दिसंबर 3

ऊँघता मधुमास भीतर

ऊँघता मधुमास भीतर 

अनसुनी कब तक करोगे 

टेर वह दिन-रात देता,

ऊँघता मधुमास भीतर 

कब खिलेगा बाट तकता !


विकट पाहन कन्दरा में 

सरिता सुखद इक बह रही, 

तोड़ सारे बाँध झूठे 

राह देनी है उसे भी !


एक है कैलाश अनुपम 

प्रकृति पावन स्रोत भी है,  

कुम्भ एक अमृत सरीखा 

क्षीर सागर भी वहीं है !


दृष्टि निर्मल सूक्ष्म जिसकी  

राह में कोई न आये, 

बेध हर बाधा मिलन की 

सत्य में टिकना सिखाये !

 

बुधवार, दिसंबर 2

पल-पल है चेतना नई सी

पल-पल है चेतना नई सी


ग्रह - नक्षत्र, धरा,रवि, चाँद 

पादप, पशु, नदिया, चट्टान,  

पवन डोलती तूफ़ां उठते 

सृष्टि पूर्ण मानव अनजान !


बंधी एक नियम, ऋत, क्रम में 

नित नूतन यह पुनर्नवा सी, 

अंतर घिरा अतीत धूम्र से 

पल-पल है चेतना नई सी !


सुख की चाह रहे भरमाती 

पीड़ा के वन में ले जाए, 

जितनी दौड़ लगे कम पड़ती 

भोला मन यह समझ न पाए !


जाने कब यह क्रम छूटेगा 

मन पर छाया भ्रम छूटेगा, 

ब्रह्मांड से एक हुआ फिर 

निज महिमा का बोध जगेगा !

 

रविवार, नवंबर 29

कोई एक

 कोई एक 

युगों-युगों से बह रही है 

मानवता की अनवरत धारा 

उत्थान -पतन, युध्द और शांति के तटों पर 

रुकती, बढ़ती 

शक्तिशाली और भीरु 

समर्थ और वंचित को ले  

आह्लाद और भय का सृजन करती 

विशालकाय और सूक्ष्मतम 

दोनों को आश्रय देती सदा 

कोई एक इस धार से छिटक 

तट पर आ खड़ा होता है 

विचार की शैवाल से पृथक कर खुद 

मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के 

भँवर से निकल 

मोतियों का मोह त्यागे 

नितांत एकाकी सूने तट पर 

देखता है बड़ी मछलियों से भयभीत हैं छोटी 

देखता है वही दोहराते हुए 

जगत पुनःपुनः निर्मित होते औ' नष्ट होते 

आवागमन के इस चक्र से वह बाहर है !


गुरुवार, नवंबर 26

आहट

आहट

अनजाने रस्तों से

कोई आहट आती है

बुलाती है सहलाती सी लगती

कौतूहल से भर जाती है

जाने किस लोक से

भर जाती आलोक से

मुदित बन जाती है

सुधियाँ जगाती

कौन जाने है किसकी

आँख पर रहे ठिठकी

शायद कुछ राज खुले

स्वयं न बताती

फिजाओं में घुल जाती है

सुनी सी पर अजानी भी

भेद क्यों न खोलती

जाने क्या कहती वह

 क्या गीत गुनगुनाती है 

बुधवार, नवंबर 25

जीवन क्या है ?

 जीवन क्या है ?

स्थूल से सूक्ष्म तक जाने की यात्रा

अथवा ज्ञात से अज्ञात को 

दृश्य से अदृश्य को पकड़ने की चाह

रूप के पीछे अरूप

ध्वनि के पीछे मौन को जानने का प्रयास !

या पीड़ा के पीछे आनंद

 सुख के पीछे दुख

 संयोग के पीछे वियोग

 शिखर के साथ खाई  

 गगन के साथ सागर की अतल गहराई में उठना और गिरना ?

अथवा

अधर में लटकते ग्रह-नक्षत्र और पृथ्वी को देख

जानना यह सत्य

कहाँ गहराई कौन सी ऊँचाई

कौन आगे कौन पीछे 

सब कुछ वृत्ताकार है जहाँ

न आदि न अंत 

घड़ी भर पहले जो सुख था अब दुःख है 

एक में दूसरा छिपा है साथ-साथ 

सब कुछ मात्र है 

जाने कब से और  रहेगा जाने कब तक

सम्भवतः यही जीवन है ! 


मंगलवार, नवंबर 24

स्वामी-दास

स्वामी-दास

 

कोई स्वामी है कोई दास

 है अपनी-अपनी फितरत की बात

किसका ? यह है वक्त का तकाजा  

स्वामी माया का चैन की नींद सोता

 क्षीर सागर में भी

सर्पों की शैया पर !

 गुलाम वातानुकूलित कक्ष में

 करवटें बदलता है

मखमली गद्दों पर !

मन का मालिक शीत, घाम

सहज ही बिताता है

गुलाम हड्डियाँ कंपाता,

कभी पसीने से अकुलाता है

स्वामी है जो स्वाद का

 दाल-रोटी खाकर भी

 गीत गुनगुनाता है

भोजन का दास

 पाचक खाकर ही निगल पाता है

हर पल उत्सव मनाए स्वामी

दास बेबात मुँह फुलाता है

हजार उपाय करता

गम भुलाने के वह

फिर एक न एक दिन

शरण में स्वामी की आ ही जाता है !

 


सोमवार, नवंबर 23

आदमी

आदमी



 कली क्या करती है फूल बनने के लिए

विशालकाय हाथी ने क्या किया

निज आकार हेतु

व्हेल तैरती है जल में टनों भार लिए

वृक्ष छूने लगते हैं गगन अनायास

आदमी क्यों बौना हुआ है

शांति का झण्डा उठाए

युद्ध की रणभेरी बजाता है

न्याय पर आसीन हुआ

अन्याय को पोषित करता है

अन्न से भरे हैं भंडार चूहों के लिए

भूखों को मरने देता है

पूरब पश्चिम और पश्चिम पूरब की तरफ भागता है

शब्दों का मरहम बन सकता था

 उन्हें हथियार बनाता है

एक मन को अपने ही

 दूसरे मन से लड़वाता है

लहूलुहान होता फिर भी देख नहीं पाता है

यह अनंत साम्राज्य जिसका है

वह बिना कुछ किए ही कैसे विराट हुआ जाता है !

शनिवार, नवंबर 21

देखे वह अव्यक्त छिपा जो


देखे वह अव्यक्त छिपा जो

कंकर-कंकर में है शंकर 

अणु-अणु में बसते महाविष्णु, 

ब्रह्म व्याप्त ब्राह्मी सृष्टि में 

क्यों भयभीत कर रहा विषाणु !


वास यहाँ जर्रे-जर्रे में 

अलख निरंजन वासुदेव का, 

इस धरती पर जटा बिखेरे 

गंगा धारी महादेव का !


मन में हो विश्वास घना जब 

देखे वह अव्यक्त छिपा जो, 

अपरा-परा शक्तियां उसकी 

 कहा स्पष्ट कान्हा ने जिसको !


जिसने रचा खेल यह सारा 

कैसे वह अनभिज्ञ रहेगा,

उसके ही हम बनें खिलाड़ी 

जग यह सारा खेल लगेगा !