मंगलवार, दिसंबर 29

जाता हुआ वर्ष

जाता हुआ वर्ष

वक्त का पहिया आगे कुछ सरक गया
अनगिन सौगात दे और एक बरस गया

दुनिया में युद्ध कहीं शांति की बात हुई
पारा कुछ और चढ़ा भारी बरसात हुई

बदलीं निष्ठाएं कुछ सत्ताए भी छिनीं 
सहनशीलता घटी अफवाहें भी बुनीं

तेवर शीतल हुए मंदी की मार पड़ी
योगमय हुआ विश्व ध्यान की लहर बढ़ी

सीरिया में रक्त बहा बेघर को घर मिला
द्वार खुले ही मिले जहाँ गया काफिला

आई एस का जुल्म बढ़ा दूरियां भी घटीं
समीकरण बने नये मित्रता को शक्ल दी

विष बढ़ा वायु में विकास महंगा पड़ा
जाता हुआ यह बरस दे कई सबक गया 

गुरुवार, दिसंबर 24

क्रिसमस की पूर्व संध्या पर

क्रिसमस की पूर्व संध्या पर


 याद है
छत से लटकता वह लाल सितारा
नन्हा सा बल्ब जिसमें छुपा था
गमले में उगे क्रिसमस ट्री पर
 सजे नन्हे-नन्हे खिलौने और गुड़िया का घर  
घर से आती केक के पकने की मीठी सुवास और
एक के बाद एक यीशू के गीत
 छोटी बहन के अधरों पर
स्कूल के चैपल में उसने सीखे थे जो
सोना व लोबान लेकर आये
तीन सिद्ध पुरुषों की बानियाँ
मरियम और जोसफ की कहानियाँ
भेड़ों के बीच जन्मा नन्हा मसीहा

क्रिसमस पर कितना कुछ याद आता
संत निकोलस की दरियादिली
रेनडियर पर होकर सवार
बर्फ पर कैसे उसकी स्लेज फिसलती
और रातों को वह जुराबों का टांगना
फिर सुबह होते ही भागकर देखना
इस बरस सांता ने क्या दिया
क्रिसमस है कितना अनोखा !
ख्वाब भरता है आँखों में
दिलों में भरता है मिठास
और गीत भरता है अधरों पर
चर्च से आती घंटियों की आवाज
याद दिलाती.. किसी मधुर संगीत की
जो सोया है अभी आत्मा में.. जिसे जगाना है
लाल फ्रॉक्स में सजी नन्हीं बालिकाओं
और सुंदर ड्रेस में सजे बालकों के कैरोल
भर जाते हैं आह्लाद भीतर
लगता है तब जैसे
क्रिसमस का अर्थ गुनगुनाना है
यह उल्लास का प्रतीक है
विश्वास और आस का प्रतीक भी
मुबारक हो आप सभी को
अनोखा यह त्योहार
भर जाये जिंदगी में सुहानी बहार !


शनिवार, दिसंबर 19

कैसे यह बात घटी


कैसे यह बात घटी


सबको घर जाना है
आज नहीं कल यहाँ
 उतार वस्त्र देह का
हो जाना रवाना है !

भुला दिया जीत में
कभी जगत रीत में
मीत सभी हैं यहाँ
कोई न बेगाना है

सबको घर जाना है !

कैसे यह बात घटी
लक्ष्य से नजर हटी
स्वयं को ही खो दिया
मिला न ठिकाना है !

भेद जो भी दीखते
ऊपर ही सोहते
एक रवि की किरण
बुने ताना-बाना है !

शुक्रवार, दिसंबर 18

सृष्टि भरपूर है

सृष्टि भरपूर है


आज जो पंक है वही कल कमल बनेगा
अश्रु जो झरता है.. मन अमल बनेगा
अभी जो खलिश है भीतर वही कल स्वर्ग रचेगी
आज के जागरण से.. कल गहन समाधि घटेगी
सृष्टि भरपूर है प्रतिपल लुटाती है
जिसकी आज चाह उपजी कल उसे भर जाती है
बेमानी है अभाव की बात
यहाँ बरसता है पल-पल अस्तित्त्व
बस खाली कर दामन पुकारना है एक बार
रख देना मन को बना सु-मन उसके द्वार
माना कि शंका के दस्यु हैं, दानव भी भय के
पर विजय का स्वाद.. नहीं चखेंगे वे
निकट ही है उषा ज्ञान सूर्य उदित होगा
नजर नहीं आयेंगे तब भय और शंका
मुस्कुराएगी सारी कायनात संग में
आँखों में अश्रु भरे हर्ष और उल्लास के !



गुरुवार, दिसंबर 17

राहों में जो फूल मिलेंगे

राहों में जो फूल मिलेंगे


मंजिल कितनी दूर भले हो
कदमों को न थकने देना,
राहों में जो फूल मिलेंगे
उर सुरभि से भरने देना !

पत्थर भी साथी बन सकते
चलना जिसको आ जाता है,
भूलों से ही उपजी पीड़ा
दुःख भी पाठ पढ़ा जाता है !

अंतर में जब प्रीत जगी हो
उपवन बन जाता संसार,
नहीं विरोध किसी से रहता
सहज बिखरता जाता प्यार !

श्रम के कितने सीकर बहते
नित नूतन यहाँ सृजन घटे,
साध न पूरी होगी जब तक
तिल भर भी न तमस घटे !

उर आंगन में रचें स्वर्ग जब
उसका ही प्रतिफलन हो बाहर,
भीतर घटे पूर्णिमा पहले
चाँद उगेगा नीले अम्बर !



बुधवार, दिसंबर 16

जीवन एक रहस्य ही है


जीवन एक रहस्य ही है

जैसा चाहो वैसा गढ़ लो  
स्वप्नों को सच भी तुम कर लो,
हर पल है उपहार अनोखा
हर पल में ही खुशियाँ भर लो !

पल-पल देखो सृष्टि बनती
धूल का कण व तारागण भी,
नन्हा सा जो पादप कल था
वही बना विशाल बरगद भी !

जीवन एक रहस्य ही है
मन के द्वार खुले ही रखना,
कोई कब भीतर आ जाये
जाने किस पल सच हो सपना !

एक आस यदि टूट भी जाये
मुस्कानों का साथ न छोड़ो,
बरस रहा है अविरत बादल
बूंद-बूंद विश्वास समेटो !

जाने कितने मधुरिम लम्हे
छिपे हुए हैं अंतर्मन में,
बिखरा दो कुछ भी न रख के
साथी वही बनेंगे पथ में !


सोमवार, दिसंबर 14

ये नन्हे श्रमिक



ये नन्हे श्रमिक

एक आवाज पर मालिक की दौड़े आते
पुरानी मटमैली जैकेट में तन को ढांपते
मुंह में जाने क्या चबाते
 ये बच्चे
अभी से बड़े हो गये हैं
साहब का थैला गाड़ी तक पहुंचाते
फिर से दुकान पर आकर खड़े हो गये हैं
आँखों में चमक अभी शेष है
 फुर्सत के क्षणों में हंसते और खेलते भी होंगे
पर जाने कब वे पल आते हैं
अभी तो ढोते रहना है बोझा
और ढाबे पर जाकर बुझानी है क्षुधा
चाय और टोस्ट से अपने आप ही
माँ के हाथों से खाना.. इनके नसीब में नहीं


गुरुवार, दिसंबर 10

सुबह की सैर

सुबह की सैर


बाहर निकलो
 न झांको खिडकियों से
घरों में बैठ-बैठे
दुनिया बहुत बड़ी है बाहर
खुला आसमान है
सुंदर कितना यह जहान है
हजारों मील का सफर तय कर आये
पंछियों की सोचो न
 चार कदम चल कर
बगीचे की सैर ही कर आओ
थोडा चम्पा को निहारो
चमेली, गुलाब, गेंदा को सहलाओ
 पंछियों के झुण्ड को दाना डालो
उगते हुए सूरज की तस्वीर ही उतारो
बाहर जीवन बदल रहा है प्रतिपल
घट रहा है परमात्मा का नृत्य
अनदेखा, अनजाना पत्ते-पत्ते में अविकल   
जन्मते हजारों पादप इस धरा पर निरंतर
उलेचती ही जाती है भूदेवी
रंगों का अकूत खजाना
नहीं चलेगा अब
घर में बंद रहने का कोई बहाना !  

  

बुधवार, दिसंबर 9

जीवन


जीवन


दुःख जैसा लगता ऊपर से
भीतर सुख की खान छिपाए
जीवन एक तिलिस्म अनोखा !

सदा विरोधी सा लगता पर
दिवस ही संध्या में ढल जाये
जीवन एक मिलन अनोखा !

मौन खड़ा पर्वत भी मुखरित
निर्झर मुख से गीत सुनाये
जीवन एक नाद अनोखा !

मृदु से मृदु स्वाद मिल सकता
तिक्त फलों को भी उपजाए
जीवन एक सृजन अनोखा !




मंगलवार, दिसंबर 8

कविता

कविता

कविता किसी झरने की भांति
सिमटी रहती है गहन कन्दराओं में
और फिर एकाएक फूट पड़ती है झरझर
या फिर बादलों में बूंद बन कर
फिर बरस पड़ती है शीतल फुहार बनकर
बीज बन रहती है मन की माटी में
छुपी रहती है पादप में रुत आने तक
फूल सी एक दिन खिल उठती है
कब आएगी उसकी खबर केवल
अस्तित्त्व को होती है...

सोमवार, नवंबर 30

जन्मदिन की शुभकामनाएँ

जन्मदिन की शुभकामनाएँ

नयी भोर आयी जीवन में
लेकर एक सन्देश नया,  
जन्मदिन यह कहने आया
बीता जो वह समय गया !  

हर क्षण यहाँ लिये आता  
एक ऊर्जा का उपहार,
नयन मिलाये जीवन से जो
पा जाता अनुपम आधार !

आगे ही आगे बढ़ना है
नहीं दूसरा कोई मार्ग,
पथ दिखलाया सदा ही जिसने  
भीतर वह जलती है आग !

शुभ ही केवल घट सकता
रब की इस पावन सृष्टि में,
जन्म दिया जिसने उसके
सुन्दरतम जीवन घट में ! 

गुरुवार, नवंबर 26

झर सकता है वही निरंतर

 झर सकता है वही निरंतर

यह कैसी खलिश..यह हलचल सी क्यों है
जो लौटा घर.. उर चंचल सा क्यों है

बादल ज्यों बोझिल हो जल से
पुष्प हुआ नत निज सौरभ से,
बंटने को दोनों आतुर हैं
ऐसी ही नजरें कातर हैं !

प्रेम सुधा का नीर बहाएँ  
सुरभि सुवासित बन कर जाएँ,
कृत्य किसी की पीड़ा हर लें  
वही तृप्त अंतर कर जाएँ !

चलते-चलते कदम थमे थे
पल भर ही पाया विश्राम,
पंख लगे पुनः पैरों में
यह चलना कितना अभिराम !

भर ही डाली झोली उसने
इतना भार सम्भालें कैसे,
रिक्त लुटाकर ही करना है
पुष्प और बदली के जैसे !

दे ही डालें सब कुछ अपना
फिर भी पूर्ण रहेगा अंतर,
शून्य हुआ जो अपने भीतर
झर सकता है वही निरंतर !

कैसी अद्भुत बेला आई
भीतर नयी कसक जागी है,
शीतल अग्नि कोमल पाहन
जैसे बिन ममता रागी है ! 

मंगलवार, नवंबर 3

हम और वह


हम और वह

हम नहीं होते जब वह होता है
बंद हो जाती है आँख जब वह
 अपने आप में समोता है
हमारा होना ही उसका न होना है
उसका होना ही हमारा खोना है
उतार सारे मुखौटे
जब जाते हैं हम उसके करीब
हम में कुछ बचता ही नहीं
बस रह जाता है वह रकीब
हर चाहत एक चेहरा है
हर लक्ष्य सबब बनता
उससे दूर ले जाने का
हर ख्वाहिश उसे खोने का
वह जो हर कहीं है.. हमारे होने से ही तो है ढका !