बुधवार, अक्तूबर 19

जिंदगी का गीत यूँ ही

जिंदगी का गीत यूँ ही

सोचते ही आज बीता
कल कभी आता कहाँ,
जिंदगी का गीत यूँ ही
छिटक ही जाता रहा !

डर छुपाये जी रहा जग
धुधं, कोहरा या धुआं सा,
मांगता रब से दुआएं
कंप रहा मन पात सा !

नींद में जो स्वप्न देखे
जागते ही खो गये वे,
जग उठे भीतर उजाला
स्वप्नवत होगा जगत ये !

मुस्कुराती जिन्दगी तब 
बाँह फैलाये मिलेगी,
हर कदम पर खिलखिलाती 
गंग धारा सी बहेगी !

मंगलवार, अक्तूबर 18

मन

मन

भर जाता भीतर उत्साह
गायत्री मन्त्र का उच्चार
स्यात् सवितादेव की तरह बंटना चाहता है 
करता आह्लादित युगों-युगों से
गंगा की लहरों का स्पर्श अंतर को
आत्मसागर की ओर बहना चाहता है 
थम जाते कदम देख फूलों का झुरमुट
बियाबान जंगल में भी
बन सुगंध दिग-दिगंत में उड़ना चाहता है 
लुभाती हर दीप की लौ 
 बनकर ज्योति की सुवास मिटना चाहता है
बिखरना सीखा पारिजात से जिसने
सदा ताजा ही रहेगा बन
तोड़ दी सीमाएं, पंछी सा 
 गगन में उड़ेगा ही वह मन !

शुक्रवार, अक्तूबर 14

जो भी राह दिखाने आया

जो भी राह दिखाने आया

एक मुखौटा ओढ़ा सुंदर
चेहरे पर मुस्कान पहन ली,
दिल में चाहे आग सुलगती  
शीतल सी पहचान ओढ़ ली !

हालचाल सब ठीकठाक है
जग को जब विश्वास दिलाया,
 मदमाती जीवन की राह है
दिल ने खुद को भी समझाया !  

जो भी राह दिखाने आया
उसको अपना दुश्मन माने,
छलता जो मन पहले जग को
खुद को ही बंधन में डाले !

मूल छिपा ही रहता भीतर
माया के पर्दे पर पर्दे,
स्वप्नों की इक आड़ खड़ी है
उम्मीदों के जाल बड़े ! 

मंगलवार, अक्तूबर 4

माँ

माँ


शिव रूप में जो निर्निमेष तकता रहता है
माँ बनकर वही अस्तित्त्व समेट लेता है निज आश्रय में
अभय कर देती है माँ शिशु को
स्वीकारती है उसकी माटी से सनी काया 
बन जाती है प्रेम स्वरूपा आनन्दमयी छाया
शक्ति स्वरूपा भर देती है अदम्य साहस और बल
अष्टभुजा धारिणी, महिषासुरमर्दिनी माँ !
समृद्धि और सम्पन्नता की दात्री बन
फिर खोल देती है निज अकूत भंडार
ज्ञान बन कर कभी राह दिखाती है
अंधकार में घिरे मन को
आत्मा के उजाले में ला बिठाती है
हर रूप उसका मनोहारी है
जो परमेश्वरी है.. वही आत्मनिवासिनी है !