सोमवार, नवंबर 29

बिन बदली बरसे ज्यों सावन

बिन बदली बरसे ज्यों सावन

भीतर ही तो तुम रहते हो
खुद से दूरी क्यों सहते हो,
जल में रहकर क्यों प्यासे हो
स्वयं ही स्वयं को क्यों फांसे हो !

भीतर एक हँसी प्यारी है
खनक न जिसकी सुनी किसी ने,
भीतर एक खुला आकाश
जगमग जलता परम प्रकाश !

खुशी का एक मतवाला सोता
झर-झर झरता बहता जाता,
एक अनोखा है संसार
ईंट ईंट है जिसकी प्यार !

फूट फूट कर बहे उजाला
छलक छलक जाये ज्यों प्याला,
उमग उमग कर फैले सुरभि
दहक दहक जले अंगारा !

ऐसे उसकी स्मृति झलके
तारों भरा नीला आकाश,
बिन बदली बरसे ज्यों सावन
बिन दिनकर होता प्रकाश !

अनिता निहालानी
२९ नवम्बर २०१०





शनिवार, नवंबर 27

बिन बाती इक दीप जला लें

बिन बाती इक दीप जला लें

मुट्ठी भर पल पास हमारे

अंजलि भर क्षण पाए सारे,

चाहे खो दें या फिर बो दें

वृक्ष उगा दें मन के द्वारे !


 एक फूल अमृत का खिला दें

अमरबेल पादप लहरा दें,

खो जाएँ फिर नभ अनंत में

दिग दिगंत में सुरभि उड़ा दें !


मदहोशी जो होश जगा दे

परम शांति के फूल उगा दे,

रग-रग में फिर नृत्य समाये

कण-कण मन के ज्योति समा दे !


ऐसा एक रहस्य जान लें

जीते जी इक स्वर्ग बना दें,

अंधियारा मिट मिले उजास 

बिन बाती इक दीप जला लें !


गीत चुके, पर वह असीम है

शब्द पुराने वह नवीन है,

पल-पल वह संवर्धित होता

परम प्रेम में वह प्रवीण है !


कह-कह कर भी कहा न जाये

सदा और, और हुआ जाये,

जितना हमने  चाहा उसको

लाख गुना वह प्रेम जताए !


अनिता निहलानी
२७ नवम्बर २०१०



शुक्रवार, नवंबर 26

हम अनंत तक को छू आते

हम अनंत तक को छू आते

तन पिंजर में मन का पंछी

पांच सीखचों में से ताके,

देह दीये में ज्योति उसकी

दो नयनों से झिलमिल झाँके !


पिंजर में सोना मढ़वाया

पर पंछी प्यासा का प्यासा,

दीपक हीरे मोती वाला

किंतु ज्योति को ढके धुआँ सा !


नीर प्रीत का सुख के दाने

उर का पंछी पाके चहके,

पावन बाती, स्नेह ऊर्जा

हुई प्रज्जवलित ज्योति दहके !  


स्वर्ण-रजत सब माणिक मोती

पल दो पल का साथ निभाते,

मिले प्रेम आनंद ऊर्जा 

हम अनंत तक को छू आते !


बाहर छोड़ें, भीतर मोड़ें

टुकड़ों में मन कभी न तोडें

एक बार पा परम संपदा

सारे जग से नाता जोड़ें !


अनिता निहालानी
२६ नवम्बर २०१०
   

बुधवार, नवंबर 24

मिठाई मिलन समारोह




प्रिय ब्लॉगर मित्रों,
पिछले दिनों घर में परिवार के सभी लोग इक्कट्ठे हुए, जब एक कुनबा एक साथ होता है तो कई नई यादें मनों में घर कर लेती हैं भविष्य में आने वाली पीढियों तक वह यादें किसी न किसी तरह पहुँच जाती हैं. कुछ यादें मैंने इस कविता में उतारी हैं, इसे पढ़कर शायद आपको भी अपने परिवार के मिलन की कोई  स्मृति हो आये...
मिठाई मिलन समारोह

कई बरसों के बाद मिले थे
दिल सभी के बहुत खिले थे,
इक छत के नीचे वे चौदह
और बातों के सिलसिले थे !

दिन सुहाने, माह नवम्बर
न गर्मी न सर्दी का डर,
कारण पापा की बीमारी
लेकिन खुश वे, थे बेहतर !

वाराणसी से डिब्रूगढ़ का
राजधानी में सफर चला,
मुम्बई से उड़े गगन में
फिर असम का दर्श मिला I

सँग लाए वे भेटें अनुपम
मिठाईयों का पूरा भंडार,
दीवाली के बाद मिले थे
मीठा मीठा था व्यवहार !

मलाई गिलौरी, गोंद के लड्डू
बूंदी चूर, बरफियाँ अनगिन
मेवों, सेव से बने व्यंजन
खाए मिलजुल सबने हरदिन !

वजन बढ़ा या घटा औंस भर
नापा करते बारी बारी,
अभी नाश्ता खत्म हुआ न
 दोपहरी की हो तैयारी I

फिर बारी भ्रमण की आती
दो कारों में सभी समाते
रोज नापते असम की धरती
चाय बागानों में जाते I

नदी किनारे, पुल के ऊपर
पार्क के झूले मन मोहते
पंछी, धूप, हवा, पानी सँग
हरी घास पर सभी झूमते !

ओ सी एस में एक अजूबा
पानी में थी आग लगी,
देख सभी रह गए अचम्भित
साँसें  थीं रह गयी रुकीं !

बच्चों ने भी लीं तस्वीरें
मन में यादें भरीं सुनहरी
दो सौ तेरह में सोये सब
दो सौ सात में कटी दुपहरी I

मिल उनो व कैरम खेला
झूले में भी पींग बढाई
पौधों को नहलाया जल से
ग्रुप में फोटो खूब खिचाई I

मोनोपली के राउंड चले
फेसबुक पर सभी गए,
एक जगत जो यह दिखता
दूजा है स्क्रीन के पीछे I

मेलजोल से हर दिन बीता
खुशियाँ जैसे झलक रहीं थीं,
योग, प्राणायाम के बल पे
सेहत सबकी ठीक रही थी I

ऐसा एक मिलन था अद्भुत
कविता में जो व्यक्त हुआ,
और दिलों में जो अंकित है
बड़े प्रेम से खुदा हुआ !

इसी तरह का प्यार सदा ही
सबके मन में बसा रहे
पापा मा की मिलें दुआएं
जीवन सुंदर सदा रहे !!

अनिता निहालानी
२४ नवम्बर २०१०
   




मंगलवार, नवंबर 23

जिसने जाना राज अनोखा

जिसने जाना राज अनोखा

मुँदे नैन में झलक उसी की

खोया मन आहट पा उसकी,

गूँज रही रह-रह कोई धुन

अधरों पर स्मित, बात उसी की !


कितना अद्भुत खेल रचा है

खुद को ढूँढे खुदी छुपा है,

जिसने जाना राज अनोखा

जीवन उसने ही जीया है !


सब कुछ करे पर कुछ न करता

एक साथ सभी दुःख हरता,

ख़ुद बाँधे थे बंधन सारे

हँस-हँस के हर बोझ उतरता !


श्वास-श्वास धरे स्मृति उसी की

फिर भी पहुँच न उस तक होती,

कदम-कदम है उसकी पूजा

कह कह पूरी बात न होती  !


जाने हैं सब किसको ध्यायें

किसके पथ में नयन बिछाएं,

लेकिन जब तक मुड़ें न भीतर

खुद को हम क्योंकर ही पाएँ !



अनिता निहालानी
२३ नवम्बर२०१०  




सोमवार, नवंबर 22

आत्मा का गीत

आत्मा का गीत

तन के भीतर, मन मंदिर में
मन मंदिर के गहन कक्ष में,
गहन कक्ष के बंद द्वार हैं
बंद द्वार के पीछे सोयी I

कोमल, सुंदर, विमल आत्मा !

हौले से मन मंदिर जाना
गहन कक्ष के द्वारे थमना,
बंद कपाटों को खुलवाना
बड़े स्नेह से उसे जगाना I

वहीं मिलेगी मधुर आत्मा !

मिलते ही हर दुःख हर लेगी
सौगातों से उर भर देगी,
सारे जग का प्यार समेटे
मन में या नयन में रहेगी I

जन्मों की है मीत आत्मा !

अनिता निहालानी
२२ नवम्बर२०१०

वह आता है

वह आता है

जब सब कुछ
दे डालो उसको !

मन का नेह
प्रीत अंतर की,
प्यार हृदय का!

बिना चाह के,
तब वह धीरे से
आता है!

दे जाता है
प्रेम निधि,
अमोल रिधि,
सहज विधि!

बिना कहे कुछ  

श्वास श्वास में
तन में, मन में
कण-कण, पोर-पोर
जीवन में !

नयनों में
मीठे बैनों में
अतल आत्मा के
गह्वर में !

जल में, थल में
वसुधा तल में !

एक वही तो
डोल रहा है
पट भीतर के
खोल रहा है !

अनिता निहालानी
२२ नवम्बर २०१०





शुक्रवार, नवंबर 19

प्रेम

प्रेम

प्रेम ! एक पहाड़ी नदी
जो उदगम पर उफनती, शोर मचाती
उच्च प्रपात बन छलांग लगाती
खो जाती कभी गहन कन्दराओं में !

वैसे ही सिमट जाता
प्रेम ! मन की गुफाओं में
कभी विशाल धारा सम शांत
बहता, फिर हो जाता संकरा
पर सदा बना रहता
सदानीरा सा !

अमरबेल सा बसा रहता
दिल की गहराइयों में
कभी गुप्त, प्रकट कभी
प्रेम स्वयं में अपूर्ण है,
परम से मिलने तक !
जैसे नदी सागर मिलन से पूर्व !

अनिता निहालानी
१९ नवम्बर २०१०
 

गुरुवार, नवंबर 18

घर में उसको आने दो

घर में उसको आने दो

सिर पर हाथ सदा है उसका
बड़े प्यार से सहलाता है,
दिल से उसे पुकारो तो बस
सम्मुख तत्क्षण आ जाता है !

आना भी क्या, सदा यहीं है
उसकी ओर जरा मुख मोडो,
नेह-प्रेम से भर देगा वह
दामन, उससे  नाता जोड़ो !

इतने बड़े जहाँ का मालिक
पल-पल रहता निकट हमारे,
ओढ़ाये खुशियों की चादर
जीवन की हर घड़ी संवारे !

उसका मिलना ही मिलना है
जग सारा मिल मिल के बिछड़े
एक वही पाने के लायक
जग भी सुंदर, मिलकर उससे !

वैसे तो वह मिला हुआ है
हमने ही ना याद किया,
भीतर सूरज उगा हुआ है
हमने ही पट बंद किया !

उत्सव याद दिलाने आया
उसको ना वनवास कभी दो,
अगर दिया तो अवधि पूर्ण कर
घर में उसको आने तो दो !

अनिता निहालानी
१८ नवम्बर २०१०