शुक्रवार, जून 14

सुख उपहार जागरण का है

सुख उपहार जागरण का है



सुख की चादर के पीछे ही
छुपे हुए हैं कंटक दुःख के, 
लोभ किया आटे का जब-जब
फंस जाती मछली कांटे में !

स्वर्ग दिखाता, आस बंधाता
भरमाता जो अक्सर मन को
जब तक मन आतुर है सुख का
 छल जाता है दुःख जीवन को !

सुख तो ऊपर-ऊपर होता
 भीतर गहरे में इक दुःख है,
नाम इसी का जगत है जिसमें
सुख के नाम पे मिलता दुःख है !

कई रूप धर हमें लुभाता
बहुत मिलेगा सुख, कहता है,
एक बार जब फंस जाता मन
अहम् उसे चुप हो सहता है !

छोटी-छोटी भूलों पर भी
ना खुद को झुकने देता,
एक रेत का भवन खड़ा है
स्वयं ही कैसे गिरने देता !

कैसा माया जाल बिछा है
पीतल स्वर्ण का धोखा देता,
सुख उपहार जागरण का है
जो मंजिल पर ही जाकर होता !


मंगलवार, जून 11

आयी है घर में बहार

आयी है घर में बहार

बात पिछली शताब्दी की है
तब इंटरनेट भी नहीं था न मोबाईल
सुबह सवेरे बैठ कर रिक्शे पर
जाती थी छोटी सी बालिका स्कूल
लगाये बालों में रिबन के फूल

फिर बात कुछ वर्ष बाद की...
पहने छोटी सी सलवार-कमीज
समुद्र-टापू खेलते आंगन में
नहीं जाना आज स्कूल..
खेलने दो न, जिद करती माँ से
चली गयी थी फिर विदेश
कहाँ हुई फ़ोन से भी फिर बात  
अब तस्वीरों से ही होती थी मुलाकात
वर्षों बाद एक बार आई थी हमारे साथ
कालेज शुरू करने से पूर्व
फिर की लम्बी पढ़ाई
विवाह बंधन में बंधी
सीए युगल ने दुबई में रह 
सफलता व सम्पन्नता पायी

वापस आकर राजधानी में
सुघड़ गृहस्थी जमाई
बने है वे माँ-पिता  
आज खबर है आयी
गौरव जान चुकी है आज नारी होने का
किसी की तुतलाती बोली में माँ कहलाने का
धरा पर लायी है एक किलकार
देने उसे प्यार और ढेर सारे संस्कार
हर्षित है सारा परिवार
आयी है घर में बहार
हाँ, वह दर्द में है अभी  
पर यही पीड़ा
जीवन का सम्बल बनेगी
भीतर की शक्ति जगेगी  
मिले प्यारी गुडिया को
जीवन के सभी प्राप्तव्य
सुंदर हो भविष्य
और हों कर्म दिव्य
यही है हमारी कामना
नये-नये माँ-पापा के लिए दिली शुभ भावना..




शुक्रवार, जून 7

एक रास्ता है मन

एक रास्ता है मन

मन मानो भूमि का एक टुकड़ा है
उगाने हैं जहाँ उपवन फूलों भरे
जहाँ बिन उगाये उग आते हैं
खर-पतवार
हो सकता है अनजाने में गिराए हों बीज उनके भी
समय की अंतहीन धारा में  
जिस पर पनपे-उजड़े अनंत बार
कितने पादप कितने वृक्ष
पर अब जब कि पता चल गया है
पता उस खुशबू का
जिसकी जड़ छिपी है मन की ही माटी में कहीं गहरे
तो उपवन सजाना है
उसी को खिलाना है

मन मानो एक मदारी है
जब तक हम उसकी हरकतों पर बजाते हैं तालियाँ
तब तक दिखाता रहता है वह खेल
जिसे मिटाना ही है
उसे बड़ा क्यों करना
जिससे मुक्त होना ही है
उससे मोह क्यों लगाना
जिससे गुजरना भर है
क्यों बनाना उस पथ पर घर
एक रास्ता है मन
जो पार करना है
जब खो जाते हैं सारे अनुभव
तब कोई देखने वाला भी नहीं बचता
नाटक बंद होते ही
घर लौटना होगा
घर आना ही होगा हरेक को
एक यात्रा है मन
जो घर तक ले जाएगी....

मंगलवार, जून 4

नये घर में

नये घर में


हरा-भरा विशाल बगीचा
बिछा है जिसमें कोमल घास का गलीचा
सलेटी आकाश से गिरता अमृत सा जल
भिगो रहा है कण-कण धरा का
बरामदे की छत पर घूमते पंखे की हवा में
झूमते गमलों के पात
बाहर भीगते हैं फूलों-पौधों के गात
नये घर में थी कल हमारी दूसरी रात
सामने है मेजेंटा बोगेनविलिया
बायीं ओर गुलमोहर
श्वेत पंखुड़ियों के मध्य पीली लिए
सुवासित फूलों का पेड़ दूर हेज को छूता हुआ
दायीं ओर ‘ब्लीडिंग हार्ट’ के रक्तिम आभा लिए श्वेत पुष्प
‘जीनिया’ की कतारें भी मुस्तैद खड़ी हैं
गुलाब की झाड़ी भी हँसने पर अड़ी है
पंचम सुर में आम पर कोयल है गाती
हरियाली ही हरियाली है दूर तक नजर आती
गेट पर खड़े हैं दोनों तरफ कंचन
मानो हर आगन्तुक का करते हों अभिनन्दन
सुर्ख लाल जवाकुसुम बाहर से नजर आता है
निकट खड़े दुसरे गुलमोहर को भी लजाता है
सडक पार रोज गार्डन के नजर आता है अमलतास
एक सुखद अनुभव है नये घर में निवास
शुरू हो गयी है सडकों पर वाहनों की आवाजाही
भ्रमण पथ पर नजर आ जाता है अक्सर कोई राही..

सोमवार, जून 3

बरसे नभ से मधुरिम सागर

बरसे नभ से मधुरिम सागर


मचल रहा बाहर आने को
ठांठे मारे एक समुन्दर,
आतुर है सुवास अनोखी
चन्दन वन सी अगन सुलगकर !

नदी बह रही ज्योति उर्मि
भीतर सूरज कई छिपे हैं,
एक शहद में भीगी वाणी
मधुर गीत अभी कहाँ कहे हैं !

झरते कोमल कुसुम कुदुम्बी
वैजन्ती माला की झालर,
जगमग हीरा कोई चमकता
बरसे नभ से मधुरिम सागर !

खाली जब अंतर आकाश
ज्योति बही जाती है अविरल
उसी एक की खुशबू फैली
वही करेगा अंतर अविकल !