शनिवार, सितंबर 28

उड़ न पाते हम गगन में

उड़ न पाते हम गगन में



गुनगुनी सी आग भीतर
कुनकुना सा मन का पानी,
एक आशा ऊंघती सी
रेंगती सी जिन्दगानी !

फिर भला क्यों कर मिलेगा
तोहफा यह जिन्दगी का,
इक कशिश ही, तपन गहरी
पता देगी मंजिलों का !

जो जरा भी कीमती है
मांगता है दृढ़ इरादे,
एक ज्वाला हो अकंपित
 पूर्ण हों जो खुद से वादे !

दे चुनौती, बन जो प्रेरक
 गर न हों अवरोध पथ में,
आज थम सोचें जरा, क्या
उड़ सकेंगे हम गगन में ?

शुक्रवार, सितंबर 27

हम

हम




पिछली सदी के उत्तरार्ध में
आते-आते हम आजाद हो गये थे
खुशहाली का सपना सच होने को था
 “धरा अपनी गगन अपना
जन्नत सा लगे वतन अपना”
जैसे गीत जुबानों पर चढ़े हुए थे  
 टुकड़ों में बंटकर ही सही
आजादी का घूंट पिया था
देश की हवा में पसीने की गंध थी
श्रम की नदी का कलरव..
 और थी मजबूत इरादों के फौलाद की चमक
 किसानों ने सोना उगाया कि
 मुरझाने न पाए एक भी जीवन !
पर...सदी बीतते बीतते हम लाचार हो गये
 तंगहाली का सपना अपना होने को था
‘भूख अपनी दर्द अपना
 बेगाना लगे वतन अपना’ 
जैसे सवाल मनों को सालते थे
 जाति, धर्म, भाषा, प्रदेश के खानों में बंटे हुए हम
 देश की हवा में खून की गंध
 अलगाव वाद की नदी की चीख
 हिंसा का नृत्य और..
 भीड़ बेकाबू हो गयी है नई सदी में 
और किसान
अपनी ही जान बचा पाने में असमर्थ... !
 एक बार फिर
क्या नहीं गाने होंगे वही पुराने गीत
 श्रम से सजाना होगा इस गुलशन को
तब कहेगा हर भारतीय शान से
पूर्ण हुआ बापू का सपना
जन्नत सा लगे वतन अपना !


बुधवार, सितंबर 25

मन

मन


मन जब चहकते पंछियों की तरह
 मुंडेर पर बैठ जाता है
निरुद्देश्य..
बादलों के बनते बिगड़ते रूप
 आँखों में भर जाते हैं
जाने कितने ख्वाब
 सूरज की आखिरी किरन भी जैसे
चुपचाप कोई संदेश दे
ले रही हो विदा..
किसी सुरमई शाम को
 पंखों की फड़फड़ाहट और बसंती बयार
की मद्धिम सी आवाज...
 क्यों मन मौसम बन जाता है तब
 बदलते मौसम के साथ
ऊदा, गहरा, लाल, पीला, नीला मन !

सोमवार, सितंबर 23

बच्चे

बच्चे

मुस्कानों की खेती करते
स्वयं हँसते औरों को हँसाते
सदा बिखेरें धूप ख़ुशी की
न गम के बादल उन पर डालो !

अपनापन झलके आँखों से
अधरों से विश्वास टपकता,
जैसे रब से डोर बंधी हो
खुले नहीं ये देखो भालो !

पल-पल में उजास बिखराते
अभी स्वच्छ है पट अंतर का
वे जीवन हैं, वे आशा हैं
न भटकें वे, उन्हें संभालो !

जीवन घट रस से भर लाये
छोटे-बड़े का भेद न जानें,
अपना यह, वह कोई दूजा
उनके दिल में भेद न डालो !

स्वप्न वही हैं मानवता के
मित्र हैं ऐसे निकट हृदय के,
नहीं दिखावट नहीं शिकायत
उनकी फ़ितरत सदा संभालो ! 

शनिवार, सितंबर 21

किसने कहा होगा

किसने कहा होगा ?


पुकारो ! एक बार फिर
 मेरा आधा-अधूरा नाम
उन तमाम हसरतों के साथ
पुकारो कि मेरा वजूद सही हो मन को
सोच के तानो-बनों में अटका
फिर खो गया है

संवारो
संवारो मेरे बिखरे पलों को
उलझी लटों की तरह
 संवारो कि अपनी सूरत देख तो लूँ
 जो टूटे दर्पण में मन के
टुकड़े टुकड़े हो गयी है 

गुरुवार, सितंबर 19

चलो, अब घर चलें


चलो, अब घर चलें


बहुत घूमे बहुत भटके
कहाँ-कहाँ नहीं अटके,
 बहुत रचाए खेल-तमाशे
बहुत कमाए तोले माशे !

अब तो यहाँ से टलें
चलो अब घर चलें !

आये थे चार दिन को
 यहीं धूनी रमाई,
 यहीं के हो रहे हैं
पास पूंजी गंवाई !

यादें अब उसकी खलें
चलो अब घर चलें !

कुछ नहीं पास तो क्या
 वहाँ भरपूर है आकर
पिता का प्यार माँ का नेह  
बुलाते प्रीत के आखर

आये तो थे अच्छे भले
चलो अब घर चलें !



सोमवार, सितंबर 16

विश्वकर्मा पूजा पर ढेरों शुभकामनायें

विश्वकर्मा पूजा पर ढेरों शुभकामनायें 



एक भोर उजास भरी

जिस दिन आएगी भारत में
स्वप्न सृजन का दृग खोलेगा,
कर्मठता का हर अंतर में
एक सघन विश्वास उगेगा !
  
एक ज्योति आह्लाद भरी

जिस पल जन-जन में छाएगी
कृषक सुखद जीवन जीएगा,
नहीं मरेगा श्रमिक भूख से
औजारों में रब दीखेगा !

एक लहर आह्वान भरी

जिस क्षण छाएगी हर ओर
 श्वास-श्वास होगी तब अर्पित,
 गीत रचेगा कण-कण, भूमि
सरसेगी युग-युग से वंचित !

शनिवार, सितंबर 14

लड़कियाँ

लड़कियाँ



बड़ी समझदार, थोड़ी नादान
खुद से अनजान, करतीं पहचान
वर्तमान और भविष्य की
कड़ी लड़कियाँ !

हवा सी तेज, पानी सा बहाव
 हिरनी सी चाल, डाली सा झुकाव
चुनौती दें आँखों से हर  
घड़ी लड़कियाँ !

चेहरों पे ओज, कांधे पे बोझ
ऊँची चढाइयाँ तय करें रोज
हंसती खिलखिलाती सी
 लड़ी लड़कियाँ !

अंतर में प्यार, हिम्मत अपार
 बिखरे जहाँ को, दे पल में संवार
 धरती की अंगूठी में
 जड़ी लड़कियाँ !

गुरुवार, सितंबर 12

कहा होगा राधा ने कृष्ण से

कहा होगा राधा ने कृष्ण से


तुम ! एक परिचित युगों के
 जाने-पहचाने
पर्याय मेरे अस्तित्त्व के
पहचान मेरी निज की
खुशबु की तरह समोई तुम्हारी याद
 तन-मन में
दीप्त करती, उजाला फैलाती
 आँखों में उन दो आँखों की छाया
कुछ कहते बन गयी
 वह मुद्रा
 विश्वास चेहरे का
 सचेत कर जाता है
 तुम्हारा देना
देखना एकटक
फिर हंस देना
भर जाता है मन-प्राण को
 अनोखे विश्वास से
 अधिकार सहित कहना तुम्हारा
 आदर्शवादी तुम !
 असीम धैर्यशाली
सर से पाँव तक हूँ
उसी भाव को समर्पित
अंकुरित, हर्षित
तुम भी हो न ?

बुधवार, सितंबर 11

स्वप्न और हकीकत

स्वप्न और हकीकत



स्वप्न देखा है मानव ने
 न जाने कितनी-कितनी बार
लायेगा चिर स्थायी शांति
इक दिन वह
स्वर्ग से धरा पर उतार
चैन की श्वास लेंगे जब जन
 बहेगी प्रीत की बयार.. 
नहीं चलेगा, मौत का सामान
बेचने वालों का कारोबार
चाहता रहा है यही दिल उसका
 देता रहा है यही पुकार
खत्म होगा वैर, साथ
होड़ भी हथियारों की
 सहज, सुंदर बढ़ेगा जीवन व्यापर
नहीं पनपेंगे षड्यंत्र सत्ताओं के लिए
न ही भेंट चढ़ेंगे हिंसा की, निर्बल
विजय होगी सौहार्द की 
जीतेंगे ज्ञान और बल !
बनेगा नव समाज श्रम से
नहीं होगा अभाव न भूखा कोई
खिलेंगी सभी प्रतिभाएं
 नहीं खो जाएँगी अभावों के मरुथल में
स्वप्न देखा है मानव ने
यह हजारों बार
पर टूट जाते हैं स्वप्न और हकीकत
 चेहरा दिखाती है कर चीत्कार
फिर भी...तो
 चलता ही रहता है
 क्या नहीं ? जीवन हर बार
खोलने नई-नई सम्भावनाओं का द्वार !


रविवार, सितंबर 8

गणेश चतुर्थी पर हार्दिक शुभकामनायें - ऐसा है वह गणराया

 ऐसा है वह गणराया  



मौन मुखर हो उठा है उसका
सदियों से जो चुप बैठा है,
इक मुस्कान से उगता सूरज
दूजे से चंदा उगता है !

फूल भी तो कह जाते सब कुछ
मौन टूटता ही रहता है,
नदियाँ, पर्वत, पंछी गाते  
गणनायक न कुछ कहता है !

कर्महीन न रहता पल भर
पल-पल नया रचे जाता है,
ढूँढ़ ढूँढ़ मन हुआ अचम्भित
 वह अनंत सृजे जाता है !

करुणा का इक सागर भीतर
हर कल्पित सुख हो साकार,
ज्ञान, शब्द से बाहर आकर
 क्षण-क्षण लेता है आकार !

क्षितिज बना है उसका अंतर
जल, थल, अनल, अनिल से सजकर
स्वयं ही पूजित स्वयं ही पूजा
 स्वयं पुजारी जाता रचकर !

अशना और पिपासा जागे
जब सत्य की मानव उर में,
 तभी शुरू होता है सुख का
सफर एक अनुपम जीवन में !