बुधवार, अगस्त 28

आस्था का दीप दिल में


आस्था का दीप दिल में


कुछ नहीं है पास अपने
रिक्त है मन का समन्दर
मौन की इक गूंज है या
एक शुभ निर्वाण का स्वर

नीलिमा आकाश की भी
एक भ्रम से नहीं ज्यादा
बह रहा जो पवन अविरत
उसी ने यह जाल बाँधा

श्वास की डोरी में खिंच
चेतना का हंस आया
जाल कैसा बुन दिया इक
रचे जाता अजब माया

जिंदगी के नाम पर बस
एक सपना चल रहा है
ओढ़ कर नित नव मुखौटे
स्वयं को ही छल रहा है

भेज देता वह अजाना
एक स्मित इक हास कोमल
जो छुपा है खेल रच के
भर रहा है परस निर्मल

डोलती है धरा कब से
रात-दिन यूँ ही सँवरते
पंछियों के स्वर अनूठे
रंग अनजाने बिखरते

कौन जाने कब जला था
आस्था का दीप दिल में
या कि उसकी लपट यूँ ही
खो गयी थी बेखुदी में

बुधवार, अगस्त 21

उसने कहा था


उसने कहा था 


एक ही पाप है
और कितना सही कहा था
उस एक पाप का दंड भोग रहा है हर कोई
बार-बार दोहराता है
उस एक पाप के बोझ तले दबकर
पिसता है, नींदें गंवाता है
खुद की अदालत में खड़ा होता है
वादी भी स्वयं है और प्रतिवादी भी
अपने ही विरुद्ध किया जाता है यूँ तो हर पाप
यह पाप भी खुद को ही हानि पहुंचाता है
इसका दंड भी निर्धारित करना है स्वयं ही
'असजगता' के इस पाप को नाम दें 'प्रमाद' का
अथवा तो स्वप्नलोक में विचरने का
जहाँ जरूरत थी... जिस घड़ी जरूरत थी...
वहाँ से नदारद हो जाने का
यूँही जैसे झाँकने लगे कोई बच्चा कक्षा से बाहर
जब सवालों के हल बताये जा रहे हों
या छोड़ दे कोई खिलाड़ी हाथ में आती हुई गेंद
उसका ध्यान बंट जाये
हर दुःख के पीछे एक ही कारण है
अस्तित्त्व को हर पल उपलब्ध होना ही निवारण है
वरना रोना ही पड़ेगा बार-बार
 सजगता ही खोलेगी सुख का द्वार !

सोमवार, अगस्त 19

हरसिंगार के फूल झरे


हरसिंगार के फूल झरे


हौले से उतरे शाखों से
बिछे धरा पर श्वेत केसरी
हरसिंगार के प्रसून झरे !

रूप-रंग, सुगंध की निधियां
लुटा रहे भोले वैरागी
शेफाली के पुष्प नशीले !

प्रथम किरण ने छूआ भर था
शरमा गए, झरझर बरसते
सिउली के ये कुसुम निराले !

कोमल पुष्प बड़े शर्मीले
नयन खोलते अंधकार में
उगा दिवाकर घर छोड़ चले !

छोटी सी केसरिया डाँडी
पांच पंखुरी श्वेत वर्णीय
खिल तारों के सँग होड़ करें !

मदमाती सुवासित सौगात
बाँट रहे हैं मुक्त हृदय से
मीलों तलक फिजां महकाते !

शनिवार, अगस्त 10

शब्दों का जो अर्थ बना है



शब्दों का जो अर्थ बना है



अंतर्मन की गहराई में
कोई निर्विशेष तकता है,
अंतरिक्ष की ऊँचाई में
कोई सरल मौन बसता है

चाँद, सितारे, सूरज दमकें
उसी मौन से गुंजन जग में,
दरिया, सागर, बरखा धारे
वही मौन गति देता पग में

हर मुस्कान वहीं से उपजी
मृदु, मोहक, मदमस्त छबीला,
ढका हुआ पर महकाये मन
ऋतुराजा सा सौम्य अलबेला

शब्दों का जो अर्थ बना है
उससे परे न जग में कोई,
बिखरा पवन धूप सा श्यामल
अरुणिमा कण-कण में समोई

गुरुवार, अगस्त 8

सुषमा स्वराज


सुषमा स्वराज


हमें नाज है भारत की इस बेटी पर
जो जन-जन की आवाज बनी
जिसने पहचाना ही नहीं भारत की आत्मा को
अपने शब्दों से उसे सुंदर आकार दिया
लाखों लोगों के दिलों पर राज किया
जिसका दिल इतना विशाल था
'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना को कर दिया जीवंत
अपने कर्मों से सरहद पार भी अपना प्यार दिया !
माथे पर लाल बड़ी सी बिंदी
और मांग में चमकता सिंदूर
बयाँ कर देते हैं उसके दिल में बसे भारतीय मूल्यों की गाथा
निडर, निर्भीक, प्रतिभाशाली, ओजस्वी, प्रखर वक्ता
राजनीति में नये मानदंडों की संस्थापक
दूरदर्शी, स्नेहमयी एक कुशल प्रशासक
अपने विरोधियों को भी भाई बनाने की कला जिन्हें आती थी
बरसों बाद भी मिलीं हों किसी से उनके नाम से बुलाती थीं
ऐसी हमारी अपनी सुषमा जी को
शत शत नमन
आज देश करता है हाथ जोड़कर उन्हें वन्दन !!



गुरुवार, अगस्त 1

उमग-उमग फैले सुवास इक


उमग-उमग फैले सुवास इक


भीतर ही तो तुम रहते हो
खुद से दूरी क्यों सहते हो,
जल में रहकर क्यों प्यासे हो
खुद ही खुद को क्यों फाँसे हो !

भीतर एक हँसी प्यारी है
सुनी खनक न किसी ने जिसकी,
भीतर फैला खुला आकाश
जगमग जलती ज्योति अनोखी  !

फूट-फूट कर बहे उजाला
छलक-छलक जाये ज्यों प्याला,
उमग-उमग फैले सुवास इक
दहक-दहक ज्यों जल अंगारा !

मस्ती का मतवाला सोता
झर-झर झरता निर्मल निर्झर,
एक अनोखी सी दुनिया है
ईंट-ईंट बनी जिसकी प्यार !

ऐसे उसकी याद झलकती
तारों भरा नीला आकाश,
बिन बदली बरसे ज्यों सावन
बिन दिनकर हो पावन प्रकाश !