रविवार, मई 31

हर अनुभव का इक फूल बना लें !


हर अनुभव का इक फूल बना लें !

जीवन में जो भी घटता है 
हर अनुभव का इक फूल बना लें !
छोटे-छोटे इन फूलों को 
गूँथ सत्य की 
इक वैजयंती माल बना लें !
घटना बाहर-बाहर रहती 
अनुभूति अंतर में होती 
रोज-रोज नए सत्यों से 
करें सामना 
मन के भीतर इन सत्यों को ढाल बना लें !
गिर जाये हर मूढ़ मान्यता 
हो भीतर का हर कोना जगमग
जो जगीं अचानक उद्धघाटन से 
किसी सत्य के 
उन मुस्कानों का हार बना लें !
सुख जो बरबस बरस रहा 
उस महाकोष  से 
उसके आने में जो बाधा
है असत्य की, उसे गिरा दें 
बहे निरन्तर अनुपम सच वह 
गंगा की इक धार बना लें !
चट्टानों में अहंकार की 
दबा हुआ जो 
प्रकट हो सके 
कल- कल, छल-छल 
इक धारा में 
सच वह कोमल 
कितना निर्मल 
नीलकमल की पाँखुरियों सा 
सुंदर इक उपहार बना लें !



शनिवार, मई 30

जन्मदिन की कविता

जन्मदिन की कविता 


हे अनाम ! तुझे प्रणाम 
जाने किस युग में आरम्भ हुई होगी यह यात्रा 
या अनादि है यह भी तेरी तरह 
कभी पत्थर, पौधा, जलचर, नभचर या थलचर बनते-बनते 
 मिला होगा अन्ततः यह मानव तन 
फिर इस तन की यात्रा में भी 
कभी राजा, कभी रंक 
कभी स्त्री कभी पुरुष 
कभी अशिक्षित कभी विद्वान् 
अनेक धर्मों, आश्रमों, वर्णों 
में लिए होंगे जन्म 
गढ़ते-गढ़ते इतने काल से 
इतने दीर्घ कालखण्ड में 
आज जो बन गया है मन  
वह जानता है कि
अब मंजिल निकट है 
देख लिए सारे खेल 
देख ली तेरी माया 
यकीनन इसने बहुत लुभाया 
नाजुक रिश्तों के मजबूत बन्धनों में बाँधा 
सुख-दुःख के हाथों से बहुत राँधा
अहंकार की भट्टी में तपाया 
कल्पनाओं के झूले में झुलाया 
पर अब जाकर तेरा मर्म कुछ-कुछ समझ में आने लगा है 
अब खत्म हुई यह दौड़ 
अब घर याद आने लगा है 
जन्म-मृत्यु के इस चक्र से जब कोई छूट जाता है 
फिर जब मौज होगी तो फिर आता है 
पर तब कैदी नहीं होता प्रारब्ध का 
तेरी तरह बस
 मुस्कानें बिखेरता और गीत गाता है !

शुक्रवार, मई 29

चाह -अचाह

चाह -अचाह 

‘वह’ क्या चाहता है 
‘वह’ चाहता भी है क्या ?
जब तक चाह शेष है भीतर 
तब तक ‘वह’ है नहीं 
‘वह’ सन्तुष्ट है अपने होने मात्र से 
जैसे कोई फूल क्या चाहता है 
वह बस होता है 
शेष सब घटता है उसके आसपास 
न भी घटे तो होता नहीं उसकी तरफ से 
थोड़ा सा भी प्रयास 
लोग ठिठकते हैं पल भर को उसे निहार 
भँवरे गीत सुनाते हैं
तितलियाँ तृप्त होती हैं पराग से 
वह किसी घड़ी चुपचाप झर जाता है !

गुरुवार, मई 28

शिशु भाव में कोई मानव

शिशु भाव में कोई मानव


नन्हा शिशु निःशंक हो जाता 
माँ के आँचल में आते ही ! 

जब से उसने आँखें खोलीं 
सम्मुख उसे खड़ा ही पाया,
साधन बनी मिलन का जग से
सब से परिचय था करवाया !

बालक यदि सदा शिशुभाव में 
माँ का आश्रय लेकर रहता, 
व्यर्थ अनेकों उपद्रवों से
खुद को सदा बचाये रखता !

किन्तु उसका यह अबोध मन 
माँ से भी विद्रोह करेगा, 
जिसने उसको जन्माया है 
उस जननी पर क्रोध करेगा !

जिसने सदा ही सुहित चाहा  
उसकी आज्ञा ठुकरायेगा, 
निश्च्छल निर्मल प्रेम को उसके 
समझ देर से ही पायेगा !

चाहे कितनी देर हुई हो 
माँ का दिल प्रतीक्षा करता,
परमात्मा का प्रेम वहीं तो 
सहज विशुद्ध रूप में बसता !

शिशु भाव में कोई मानव 
जब मन्दिर के द्वारे जाता 
सदा भवधरण की बाँहों का 
खुला निमंत्रण वह पा जाता !



बुधवार, मई 27

लहरों से थपकी देता है

लहरों से थपकी देता है 


कोई सुख का सागर बनकर 
लहरों से थपकी देता है, 
हौले-हौले से नौका को 
मंजिल की झलकी देता है !

बरसे जाता दिवस रात्रि वह 
मेघा लेकिन नजर न आये, 
टप टप टिप टिप के मद्धिम स्वर 
मानो दूर कहीं गुंजाये !

कोई ओढ़ा देता कोमल 
प्रज्ज्वलित आभा का आवरण, 
सुमिरन अपना आप दिलाता 
पलकों में भर दे सुजागरण !

सूक्ष्म पवन से और गगन से 
नहीं पकड़ में समाता भाव, 
होकर भी ज्यों नहीं हुआ है 
हरे लेता है सभी अभाव !

जाने कैसी कला जानता
भावों से मन माटी भीगे, 
धड़कन उर की राग सुनाये 
भरे श्वास में सुरभि कहीं से !

मंगलवार, मई 26

जब

जब
जब चुक जाती हैं संवेदनाएं सिकुड़ जाती है आत्मा आत्मकेंद्रित हो जाता है प्रेम दुःख का असली क्षण वही होता है ! होता है ये सब भी किसी पीड़ा के कारण पर वह पीड़ा किसी निजी दुःख की परिणति है अपने-अपने अंधेरों से घिरे हम अपने खोलों में सिमट जाते हैं ! जब आशा की उम्मीद लगाए जगत हमारी ओर तकता है हम अपने ही दुखों के बोझ तले दबे रहते हैं ! जगत जब फेर लेता हैं आँखें तो हमें ज्ञात होता है निज पीड़ा में कर्त्तव्यों को भुलाना हम अपना अधिकार समझते हैं तब किसी की जरा सी भी अपेक्षा को दिल पर भार समझते हैं किन्तु सीमित हो जाती चेतना के रूप में एक अभिशाप भी ढोते हैं प्रेम जो वरदान के रूप में मिला है उसे ही खोते हैं ! बिन बंटा पदार्थ शेष रह जाता होगा पर बिन बंटी ऊर्जा बिखर ही जाती है प्रेम न बन सकी तो उदासी बन कर दूर अंतरिक्ष में खो जाती है !

सोमवार, मई 25

साँझा नभ साँझी है धरती

साँझा नभ साँझी है धरती 


दोनों के पार वही दर्शन 
जो दृश्य बना वह द्रष्टा है, 
जल लहरों में सागर में भी 
जो सृष्टि हुआ वह सृष्टा है !

हर दिल में इक दरिया बहता 
क्यों दुइ की भाषा हम बोले, 
साँझा नभ साँझी है धरती 
इस सच को सुन क्यों ना डोलें !

नीले पर्वत पीली माटी
हरियाली की छाँव यहीं है !
 तेरा मेरा नहीं सभी का 
दूजा कोई जहान नहीं है, 

हवा युगों से सबने बाँटी
तपिश धूप की, दावानल की, 
जल का स्वाद कभी ना बदला  
पीने वाला हो कोई भी !

सबको इक दिन जाना मरघट 
और निभाना फर्ज एक सा,
किसकी खातिर युद्ध हो रहे 
रिश्तों में है दर्द एक सा ! 


रविवार, मई 24

ईद मुबारक

ईद मुबारक 


लो फिर आ गयी ईद 
दिखा चांद... मुस्काया अंबर 
दिलों में मचलने लगे कितने ही मंजर 
उन हवाओं के झूले में झूलने लगा मन 
जो लिए आती थीं रमजान के बाद 
ईद मिलन की खुशबुएँ अपने साथ 
पहली अजान पर ही उठ जाना बिस्तर से 
सफेद झक्क कुर्ते में छोटे भाई का सुबह-सुबह सजना 
पकड़ कर उंगली भाईजान की, इबादत को निकल पड़ना 
लहंगों-शरारों को तह देकर अलमारी में सजाना 
वह गले मिलना और दुआ के लिए हाथ बढ़ाना 
वह ईदी देना छोटों को और बड़ों से पाना 
देकर जकात कुबूल करवाना खुदा से रोजा
‘ईद मुबारक’ कह कर हरेक से दुआएं बटोरना !
गाढ़े दूध से सेवइयां बनाकर मेवों से सजाना 
मीठी हो सबकी ईद यह अल्लाह से मनाना !

शनिवार, मई 23

वह

 वह

भूल कर भी दिल से वह जाता नहीं 
बिन बुलाये घर में जो आता नहीं 

गूँजती है धुन उसकी बांसुरी की 
जय के नगमे जो कभी गाता नहीं 

भर रहा चुपचाप ही कई झोलियाँ 
उससे बढ़कर दूसरा दाता नहीं 

गोपियों से पूछकर जरा देख लो 
बिन गोविंदा ब्रज जिन्हें भाता नहीं 


शुक्रवार, मई 22

‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है

‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है 


‘मैं’ ‘तू’ होकर ही मिलता है 
‘तू’ ‘मैं’ होकर ही खिलता है, 
मन अंतर में यह खेल चले 
बाहर इक कण ना हिलता है !

जो विभु अतीव वह क्षुद्र बना 
सागर से ही हर लहर उठी, 
 मायापति वरत योगमाया 
यह मन माया से रचता है !

जब तक यह भेद नहीं जाना 
मैं'' खुद को ही स्वामी समझे,
फिर जो भी कर्म किये उसने 
उसके बंधन में फँसता है !

यदि खुद का किया नहीं रुकता 
यह चक्र कभी ना टूटेगा, 
इक कठपुतली सा नाच रहा 
अनजाना बना फिसलता है !

जो झुक जाये उन चरणों में 
‘मैं’ को ‘तू’ ही ढक लेता जब, 
सुन मद्धिम सी आवाजों में 
कुछ सूत्र नए, संभलता है !

जैसे-जैसे ‘मैं’ ‘तू’ बनता 
‘तू’ ही ‘तू’ रह जाता केवल  
फिर कैसा कर्मों का बंधन
मन पंछी बना विचरता है !


गुरुवार, मई 21

वह अनंत पथ खुद से जाता

वह अनंत पथ खुद से जाता 


उस अनन्त पथ के हो राही
बाधाओं से क्या घबराना, 
जन्मों की जो चाह रही है 
उसे थाम कर बढ़ते जाना !

गह्वर भी हैं सँकरे रस्ते 
भय के बादल घोर अँधेरे,
कर्मों की जंजीर पड़ी है 
अपना ही मन देगा धोखे !

किन्तु नहीं पल भर को इनकी 
व्यर्थ व्यथा में जकड़ो खुद को, 
एक उसी की लगन लगी हो
बल देंगी राहें कदमों को !   

प्रतिपल नीलगगन से आतीं 
लहरें सिंचित करतीं मन को, 
नीचे धरती माँ सी थामे 
दृष्टि टिकी हो मात्र लक्ष्य पर !

भाव जगें पल-पल शुभता के 
उनकी आभा में लिपटा तन,  
वह अनंत पथ खुद से जाता 
क्यों संशय में सिमटा है मन !

बुधवार, मई 20

सत्य क्या है


सत्य क्या है 


देह या आत्मा
जगत या परमात्मा
दुःख या सुख
दोनों या दोनों के परे ?

देह टिकती नहीं, है जगत निरंतर गतिमान, दुःख नहीं भाता
 आत्मा है शाश्वत, परमात्मा अटल, सुख सदा लुभाता  

जो है सदा, ध्रुव, और प्रिय
 हाँ, वह हो सकता है सत्य !

पर... यदि देह न हो तो आत्मा का ज्ञान नहीं होता
संसार न हो परमात्मा कहाँ मिलेगा 
दुःख न सहा हो तो सुख का मोल कौन जान सकेगा 

सो दोनों हैं सत्य !

देह और आत्मा के परे, ब्रह्म  
जगत व परमात्मा से परे, शून्य 
दुःख और सुख से परे, शांति 

 तब तो दोनों से परे भी है सत्य ! 


सोमवार, मई 18

आदि - अंत

आदि - अंत 

आदि में 'एक' ही था 
'एक' के सिवा दूसरा नहीं था 
फिर विभक्त किया उसने स्वयं को 'दो' में 
एक वामा कहलायी, बांये अंग में बैठने वाली 
दूसरा अथक श्रम से सृष्टि का संधान करने वाला 
दोनों में कोई छोटा-बड़ा न था 
एक प्रेम की मधुर रस धार थी 
एक घर बनाकर प्रतीक्षा करती 
दूसरा दुनिया जहान से पदार्थ लाता 
वह सेविका बनकर भी मालकिन थी 
वह स्वामी बनकर भी याचक था 
तब जीवन सहज था क्योंकि 
विरोधी पक्ष एक दूसरे में समाहित थे 
काल की धारा में सब बदलने लगा 
एक विस्तार पाता गया जितना 
घर से दूर होता गया 
प्रेम को बंधन मानकर तिरस्कार किया 
दूसरी भी अपमान से कुंठित हुई 
नए-नए रूप धर  लुभाने लगी 
जीवन खंड-खंड हो गया 
प्रेम ही है घर का आधार 
यदि न बचे तो बिखर जाता है संसार !

शनिवार, मई 16

शब्द बीज


शब्द बीज

भीतर कहीं शब्दों के बीज गिरे थे 
कुछ प्रिय और कुछ अप्रिय शब्दों के बीज 
जिनसे उगते रहते हैं नए- नए शब्द 
फिर वे बुन लेते हैं एक अदृश्य जाल
संस्कृति और सभ्यता ने सौंपे कुछ शब्द 
माता-पिता, समाज, किताबों से मिले 
चन्द भारी शब्द बो दिए जाते हैं 
बालक के मन में 
जीवन भर जिनकी फसल काटता रहता है वह
भाषा साधन है तो उसका दुरुपयोग भी बहुत हुआ है 
शब्दों ने मानव की आत्मा को ढक लिया है 
वह प्रकट होना चाहती है 
पर कोई न कोई पहरे पर खड़ा है 
जीवन हर बार किसी शब्द से टकराकर 
औंधे मुँह पड़ा  है !

शुक्रवार, मई 15

जितना दिया है अस्तित्त्व ने हमें

जितना दिया है अस्तित्त्व ने हमें 


जितना दिया है अस्तित्त्व ने 
कहाँ करते हैं हम उतने का ही उपयोग 
‘और चाहिए’ की धुन में व्यस्त रहता मन 
देख ही नहीं पाता पूर्व का योग !

धारते आये हैं जिन्हें 
उन शक्तियों को पहचानते नहीं  
 जिनका अनंत स्रोत 
भर दिया अस्तित्त्व ने 
उन्हें खर्च करना जानते नहीं 
 वर्षों से कोई उपयोग नहीं 
किया, क्यों न उसे निकालें 
जिसे हो आवश्यकता 
अच्छा हो वही संभालें !

घर आंगन की हर इक शै से 
रोज का मिलना-जुलना हो 
मन की नदी  बहेगी नहीं 
तो कैसे उसमें कमल का खिलना हो 
नहीं तो कौन अदृश्य वहां बना लेगा डेरा 
हम जान ही नहीं पाएंगे 
फिर अपने ही घर में जाने से घबराएंगे !

मन बहती हुई नदी की तरह 
बांटता रहे अपनी शीतलता और ताजगी 
हाथ वह सब करें जिसकी जरूरत है 
न कि बाट जोहें, किसी के आने की 
कदम बढ़ते रहें जब तक चल रही है श्वास  
ताकि मिलन हो जब अस्तित्त्व से 
तो डाल सकें उसकी आँख में आँख !

गुरुवार, मई 14

शब्द जाल

शब्द जाल

शब्दों के जाल में मन का पंछी फंस गया है 
मात्र शब्द हैं वे पर दंश उनका डस गया है 
शब्द हजार हों या लाख 
फिर भी उनकी सीमा है 
मौन हर हाल में उनसे बड़ा है 
हाँ, स्वर उसका अति धीमा है 
शब्दों से ज्ञान मिलेगा 
कितना बड़ा भ्रमजाल फैलाया है
ज्ञान अनंत है भला चन्द शब्दों में कहीं वह समाया है 
तभी ऐसा कहा जा सकता है 
हैं ‘राम’ में तीन लोक समाए 
ताकि शब्दों के जाल से मुक्त हुआ जाए !

बुधवार, मई 13

परम पूज्य गुरूजी के लिए जन्मदिन पर

परम पूज्य गुरूजी के लिए 
जन्मदिन पर श्रद्धा सुमन 

ज्ञान का दीपक जलाते 
प्रेम की सरिता बहाते,
दिवस हो या रात्रि पावन
अमरता का गीत गाते !

भय मिटाते हो दिलों से 
राह उज्ज्वल भी दिखाते, 
मौन की अनुगूँज से तुम 
विश्व का प्राँगण गुंजाते !

ज्यों जलों से भरा बादल
कृपा बनकर बरस जाते,
या घना विटप हो कोई 
छाँव में अपनी बिठाते !

सारा जहाँ घर तुम्हारा 
सभी को अपना बनाते, 
प्रीत डोरी से बंधे हैं 
दिलों को जीना सिखाते !

आत्मा का ज्ञान देकर 
युद्ध में लड़ना सिखाते,
ख़ुशी देने में छिपी है 
पाठ सेवा का पढ़ाते !

चाह जो मन में जगी हो 
हो समर्पित यह बताते, 
सहज ही सन्तुष्ट हो मन 
ध्यान का जादू सिखाते !

मरुथलों से दिल बने हैं 
कुसुम्भ भक्ति का खिलाते, 
कर्म की महिमा बताकर 
कर्मयोगी भी बनाते !

आज हर दिल की दुआ है 
बरसों जन्म दिन मनाएं,
पुष्प श्रद्धा के खिलाकर 
गीत ‘मैं तेरा’ ही गाएं !

सोमवार, मई 11

स्वप्न

स्वप्न 

 स्वप्न टूटा, नींद टूटी, कर्म छूटे 
स्वप्न जारी, नींद प्यारी, कर्म बंधन 
स्वप्न में ही किले बनते और ढहते 
स्वप्न में ही लोग हँसते और रोते
भय के बादल खूब बन-बन कर बरसते 
कामनाओं के समंदर बहा करते 
डूबते जिनमें कभी भँवरों में फँसते 
पत्थरों से कभी टकरा चूर होते
कल्पनाओं में बने राजा चमकते 
स्वप्न है यह जिंदगी कब देख पाते 

स्वप्न में खो स्वयं ही नव रूप धरते  
एक होकर भी अनेकों नजर आते 
नींद गहरी यूँ लुभाती व सुलाती 
जागकर भी उन्हीं गलियों में भटकते 
कर्म हर होता तभी तक स्वप्न जब तक चल रहा है 
नींद से जागे न जब तक स्वप्न तब तक चल रहा है 




रविवार, मई 10

माँ बनकर कभी करे दुलार


 माँ बनकर कभी करे दुलार 


कदम कदम पर राह दिखाता 
कोई चलता साथ हमारे, 
सुख-दुःख में हर देशकाल में 
करता रहता कई इशारे !

नहीं अकेले पल भर भी हम 
कोई जागा रहता निशदिन, 
पल भर हम यदि थम कर सोचें 
कौन साथ ? जब आये दुर्दिन !

उसकी महिमा वही जानता 
माँ बनकर कभी करे दुलार, 
कभी पिता सा हाथ पकड़कर 
लिए जाता भवसागर पार !

हमें भुलाने की आदत है 
वह खुद अपनी याद दिलाता,
अति सुख में जब आँख मूँदते 
दुःख में नाम अधर पर आता !

उसके पथ का राही सबको 
इक ना इक दिन बनना होगा,
प्रीत समुंदर सोया उर में  
कल कल छल छल बहना होगा !

तब तक सारे खेल-खिलौने 
माया के सँग खेल रहे हैं, 
जब तक थके नहीं हैं मानव 
तब तक दूरी झेल रहे हैं !

शुक्रवार, मई 8

भोर में


भोर में 


जब कूकती है कोकिल अमराई में 
तो मन का कमल खिलने लगता है, 
शीतल मन्द पवन की छुअन 
सहला जाती है हौले से 
हाँ, शायद उस स्पर्श  के द्वारा 
वही कोई सन्देश भेजता है ! 
दूर नारंगी रग का वृत्त 
जब रंग  रहा होता है 
 क्षितिज को 
तो मन के सागर में  
मानो नृत्य कर रही हों 
लहरों का आंदोलन यूँ लगता है !
हर सुबह कितनी अलग होती है 
जो कण-कण को प्रतिदिन 
 जीने के लिए अमृत से भर देती है 
तभी कहते हैं इसे अमृत बेला  !
अगर भोर की मासूमियत नहीं देखी तो 
दोपहर की चिलचिलाती धूप से 
सीधा वास्ता पड़ेगा 
और सहना कठिन होगा, बन्धु ! उसे 
मोर की केयाँ और 
मंदिरों से आती घण्टियों के स्वर 
सजा देते हैं भोर को कुछ और !

गुरुवार, मई 7

अप्प दीपो भव

अप्प दीपो भव 


तुम वही हो !
बुद्ध के अमोघ शब्द हैं ये 
हमें मानने का जी चाहता है 
वही दीप, वही प्रकाश 
जो शाश्वत है, आनंद से भर देता है
मुक्त और अभय कर... ले जाता है,
देह की सीमाओं से परे !
नाता मन से भी टूट जाता है 
तुम साक्षी बन जाते हो दोनों के 
बुद्ध कहते ही अनंत का स्मरण हो आता है 
निर्भयता साक्षी ही अनुभव कर सकता है 
मन नहीं 
देह अब साधन है साध्य नहीं 
मन अब उपकरण है प्राप्य नहीं 
विचार अब करने की नहीं दर्शन की वस्तु है 
स्वामी सेवक का काम नहीं करता 
उस पर नजर भर रखता है 
ताकि वह पथ से भटके नहीं 
चिन्तन करना नहीं है, बुद्धि कैसा चिंतन करती है 
यह जानना भर है 
ध्यान करना नहीं स्वयं हो जाना है 
तुम कुछ भी रहो 
जाने जाओ किसी भी नाम से 
बुद्ध कहते हैं 
तुम वही हो ! 

बुधवार, मई 6

लॉक डाउन में ढील

लॉक डाउन में ढील


ग्रीन, रेड और ऑरेंज जोंस में 
अब  बंट गए हैं लोग 
लगता है, विभाजन ही मानव की नियति है 
ग्रीन में आजादी अधिक है 
जिंदगी पूर्ववत होने का आभास दे रही है 
अति उत्साह में लोग भूल जाते हैं 
चेहरे पर मास्क लगाना 
और दो गज की दूरी बनाये रखना 
वे इस तरह बाहर निकल आये हैं 
जैसे पिंजरों से पंछी 
सब्जी-फल की दुकानों से ज्यादा 
लगी हैं लंबी-लंबी कतारें 
उन दुकानों पर, 
जहाँ मस्ती और चैन के नाम पर 
जहर बिकता है 
पर नशे का व्यसन उन्हें विवश करता है 
अथवा वे डूब जाना चाहते हैं 
जीवन की वास्तविकताओं को भुलाकर 
किसी ऐसे लोक में 
जहाँ न नौकरी जाने का गम है 
न कोरोना से ग्रस्त हो जाने का 
वे चैन की नींद सो सकेंगे चंद घण्टे शायद बेहोशी में 
काश ! कोई उन्हें बताये 
एक चैन और भी है, जो बेहोशी में नहीं 
होश में मिलता है 
जिसे पाकर ही दिल का कमल पूरी तरह खिलता है 
जहाँ टूट जाती हैं सारी सीमाएं 
मन उलझनों से पार... खुद से भी दूर लगता है 
यह अनोखा नशा ध्यान का 
ऊर्जा से भरता है 
और यह बिन मोल ही मिलता है !


मंगलवार, मई 5

हर ख्वाहिश पे दम निकले


हर ख्वाहिश पे दम निकले 


सूची ख्वाहिशों की चुकने को नहीं आती
तुझसे मिलने की सूरत नजर नहीं आती 

या खुदा ! तू छुपा नहीं है लाख पर्दों में 
नजरें अपनी ही तेरी तरफ नहीं जातीं 

सच है कि तुझसे मिलने की तड़प थी दिल में 
पीछे मंशा क्या थी यह कही नहीं जाती 

तुझसे है जमाना यह जान भी तुझसे है 
जानकर भी खलिश दिल की कहीं नहीं जाती 

तेरी माया के जाल बड़े ही गहरे हैं 
उससे बचने की तदबीर भी नहीं आती 

जमाना 'वाह'  कह उठे इसी पे मरते हैं 
तेरी खामोश जुबां समझ में नहीं आती 

कभी दौलत कभी शोहरत को तवज्जो दी 
बर्बादी खुद की खुद को नजर नहीं आती


सोमवार, मई 4

है भला वह कौन

है भला वह कौन 


वह नीलमणि सा प्रखर मनहर 
गुंजित करता किरणों के स्वर,
शब्दों से यह संसार रचा 
स्वयं मुस्काये, न खुलें अधर !

नित सिक्त करे, झरता झर-झर 
मूर्तिमान सौंदर्य सा वही, 
उल्लास निष्कपट अंतर में 
ज्यों निर्मल सुख की धार बही !

वह पल भर झलक दिखाता है 
फिर उसकी यादों के उपवन, 
सदियों तक मन को बहला दें 
युग-युग तक उनकी ही धड़कन ! 

वह एक नरम कोमल धागा 
जग मोती जिसमें गुँथा हुआ,
सृष्टि या प्रलय घटते निशदिन 
उसका आकर न अशेष हुआ 

उसको ही गाया मीरा ने 
रसखान, सूर नित आराधें,
भारत भूमि का पुहुप पावन
उसकी सुवास से घट भरते !

रविवार, मई 3

उसका होना

उसका होना


कोई रेशमी सा ख्याल या 
इंद्रधनुष अटका अम्बर में, 
मादक मीठी तान गूँजती 
कोमल कमल खिला सर्वर में !

कोई ज्यों आवाज दे रहा 
हरियाली सी बिछी डगर पर,
मखमली पगत्राण धरे हों, 
या फूलों के दल हों पथ पर ! 

जैसे कोई लड़ी गीत की
या कोई अनकही कहानी,
रस्ता दिखलाती जाती हो
झरनों में जो बसी रवानी !

हौले हौले से छूती हो, 
कोई अनजानी फुहार या, 
धीमे-धीमे से बहती हो, 
पूरब की मीठी बयार या !

मेघों में जा छुपा सूर्य क्या, 
कोई तृप्ति शाल ओढ़ाकर,
तकता हो बनकर आशीषें, 
जीवन का सुअर्थ महकाकर !

कोई अपने हाथों से आ, 
सहला जाता उर का पाखी, 
पंखों में उड़ान भर जाता, 
देकर खबर किसी मंजिल की !