शनिवार, अक्तूबर 19

मन माँगे मोर




मन माँगे मोर

कहीं वह जंगल में नाचने वाला
मोर तो नहीं, जो मन माँगता है
है खुद भी तो मयूर पर  
यह नहीं जानता है...
 
या फिर ‘मेरा मन’  मांगता है 
‘तेरे’ का जिसे पता नहीं
वह ‘मेरे’ का ही राग अलापता है..

क्या कहा ? यह आंग्ल भाषा का शब्द है
‘ज्यादा’ का जो देता अर्थ है
तो कृपण मन कहाँ सम्भालेगा
 उसकी तली में तो हजारों छिद्र हैं
क्या नहीं लुटाया माँ ने प्यार अपार
  खाली नजर आता
 क्यों मन का संसार
क्या नहीं लुटा रहा परमात्मा
 नेमते हजारों हजार
 कर अनदेखा गीत वही गा  
चलता रहा व्यापार
अब लुटाने का मौसम आया है
 दीयों ने लुटाया है उजाला
और मौसम ने बहार !

आने वाले प्रकाश पर्व की बहुत बहुत बधाई !
 विदेश यात्रा का सुयोग बना है, अब वापस आकर नवम्बर में मुलाकात होगी.


शुक्रवार, अक्तूबर 18

उसका नाम

उसका नाम


जब कोरा हो मन का पन्ना
तभी लिख लो प्रियतम का नाम उस पर
नहीं तो जमाना लिख देगा
इधर-उधर की इबारतें
महत्वाकांक्षा की दौड़ ले जायेगी खुद से दूर
 फिर पुकार भी उसकी
 कानों तक नहीं आयेगी
इक झूठ को जीते चले जाने से
 नहीं हो जाता वह सच
 नकली पहचान बनाने की जिद में
असली पहचान भी खो जाएगी
जब पढ़ा जा सकता हो साफ-साफ
तभी उकेर दो उसका नाम
 मन के कोरे कागज पर.. 

मंगलवार, अक्तूबर 15

दिल को ही अम्बर कर लें

दिल को ही अम्बर कर लें 


शब्दों में वह नहीं समाये
दिल को ही अम्बर कर लें,
कैसे जग को उसे दिखाएँ
रोम-रोम में जो भर लें !

गाए रुन-झुन, रिन-झिन, निशदिन
हँसता हिम शिखरों के जैसा,
रत्ती भर भी जगह न छोड़े
बसता पुष्प में सौरभ जैसा !

रग-रग रेशा-रेशा पुलकित
कण-कण गीत उसी के गए,
रिसता मधु सागर के जैसा
श्वास-श्वास में वही समाये !



रविवार, अक्तूबर 13

बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम

बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम


बरस रहा है कोई अविरत
 झर-झर झर-झर, झर-झर झर-झर
भीग रहा न कोई लेकिन
ढूँढे जाता सरवर, पोखर !

प्रीत गगरिया छलक रही है
 युगों-युगों से सर-सर सर-सर,
प्यासे कंठ न पीते लेकिन
 अकुलाये से खोजें निर्झर !

ज्योति कोई जले निरंतर
बहे उजाला मद्धिम-मद्धिम,
राह टटोले नहीं मिले पर  
अंधकार में टकराते हम !

बुधवार, अक्तूबर 9

तृप्ति भीतर ही पलती


तृप्ति भीतर ही पलती



एक यात्रा बाहर की है
एक यात्रा भीतर चलती,
बाहर सीमा राहों की है
अंतर में असीमता मिलती !

बाहर प्रायोजित है सब कुछ
 भीतर सहज घटे जाता है,
एक थकन ही शेष है बाहर
 गहन शांति भीतर घटती !

भ्रम ही बाहर आस बंधाता
 निष्पत्ति में खाली हाथ,
निज घर में पहुंचाती सबको
 कलिका मन की जब भी खिलती !

 अंतहीन हैं चाहें मन की
पूर्ण हुई इक दूजी हाजिर,
 भीतर जाकर ही जाना यह
तृप्ति भीतर ही पलती !