क्यों रहे मन घाट सूना
पकड़ छोड़ें, जकड़ छोड़ें
भीत सारी आज तोड़ें,
बन्द है जो निर्झरी सी
प्रीत की वह धार छोड़ें !
स्रोत जिसका कहाँ जाने
कैद है दिल की गुफा में,
कोई बिन भीगे रहे न
आज तो हर बाँध तोड़ें !
रंग कुदरत ने बिखेरे
क्यों रहे मन घाट सूना,
बह रही जब मदिर ख़ुशबू
बहा आँसूं हाथ जोड़ें !
जो मिले, भीगे, तरल हो
टूट जाये हर कगार,
पिघल जाये दिल यह पाहन
भेद का हर रूप छोड़ें !
मन को भिगो देने वाली कविता रची है अनीता जी आपने । अभिनंदन ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जितेंद्र जी !
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 05 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंबेहतरीन...
जवाब देंहटाएंसादर...
अप्रतिम कृति
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अनुपम कृति ।
जवाब देंहटाएंगहरी रचना...
जवाब देंहटाएंअद्भुत!!!
जवाब देंहटाएंआप सभी विद्वजनों का स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर भाव ।
जवाब देंहटाएंस्रोत जिसका कहाँ जाने
जवाब देंहटाएंकैद है दिल की गुफा में,
कोई बिन भीगे रहे न
आज तो हर बाँध तोड़ें !
बहुत सुंदर गीत । सब आपस में मिलें , सरल और तरल रहें ।