है और नहीं
जो ‘है’
वह कहने में नहीं आता
जो ‘नहीं है’
वह दिल में नहीं समाता
जो ‘होकर’ भी ‘न हो’ जाये
जो ‘न होकर’ भी दिल को लुभाये
वही तो सत्य का आयाम है
जहाँ मौसमी नहीं
तृप्ति के शाश्वत फूल खिलते हैं
ठहर जाता है मन का अश्व
हठात् और भौंचक
तकता है
निर्निमेष
जहाँ मौन का साम्राज्य है
खोल देती है प्रकृति
अपने राज
जाया जाता है
जहाँ बेआवाज़ !