सोमवार, फ़रवरी 29

जहाँ नाचने को जग सारा

जहाँ नाचने को जग सारा


जीवन एक ऊर्जा अनुपम
पल-पल नूतन होती जाती,
नव छंद, नव ताल सीख लें
 नव सुर में नवगीत सुनाती !

इस पल देखो नभ कुछ कहता
झुकी हुई वसुधा सुनती है !
पवन ओढ़नी ओढ़ी अद्भुत
जल धारा कल-कल बहती है !

मन मयूर क्यों गुपचुप बैठा
जहाँ नाचने को जग सारा,
अल्प क्षुधा ही देह की लेकिन
फैलाया है खूब पसारा !

मुक्त हुआ हंसा भी विचरे
झूठी हैं सारी जंजीरें,
स्वयं पर ही स्वयं टिका यहाँ  
जब जाना बजते मंजीरे !



6 टिप्‍पणियां:

  1. मोनिका व मधुलिका जी, स्वागत व आभार !

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  2. उत्सव से ही तो सारा जग नाच रहा है और हम कितने हतभागी हैं कि दृष्टि ही खो देते हैं ।

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  3. स्वागत व आभार अमृता जी, जिसने यह जान लिया कि दृष्टि खो गयी है वह उसे पाने का हकदार बन ही गया !

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  4. यहाँ बस उस दृष्टि की झलक मिलती है फिर तो वही ....

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