परिभाषाएं हम गढ़ते हैं
खुद से ही मिलते रहते हैं
जब भी हम बाहर जाते हैं !
दुनिया पल-पल बदल रही है
परिभाषाएं हम गढ़ते हैं !
रटते-रटते ब्रहम सूत्र भी
सिमटे-सिमटे हम रहते हैं !
खुले कान मेहर कुदरत की
अक्सर खुद को ही सुनते हैं !
स्वप्न निरंतर मन में उगते
जग पर उनको ही मढ़ते हैं !
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