रास्ते में फूल भी थे
में लगा दी शक्ति सारी,
रास्ते में फूल भी थे
बात यह दिल से भुला दी !
उलझनें जब घेरती थीं
सुलझ जायें प्रार्थना की,
किन्तु खुद ही तो रखा था
चाहतों का बोझ भारी !
नींद सुख की जब मिली थी
स्वप्न नयनों में भरे खुद,
मंजिलें जब पास ही थीं
थामे कहाँ बढ़ते कदम !
हाथ भर ही दूर था वह
स्वर्ग सा जीवन सलोना,
कब भुला पाया अथिर मन
किन्तु शिखरों का बुलावा !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.12,18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3184 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
कितना चंचल, अधीर है ये मन ... मन सुख पाने की चाह में सुख को देख भी नहीं पाता ...
जवाब देंहटाएंबोझ मन में ढोता है और भूल जाता है निवारण ...
पहचान नहीं पाता आत्म सुख मन में रहता है भौतिक सुख में ...
दार्शनिकता लिए बंध हैं ....
सही कहा है आपने..मन ऐसा ही है, जिसने भी इसकी असलियत को समझ लिया वही इसके भुलावे में नहीं आता...स्वागत व आभार दिगम्बर जी !
हटाएंबुद्धि स्वभावतः प्राप्त से आगे की ओर भागती है और मन वही कामना करनेलगता है. जो मिला है उसी में तुष् रह लेतो इंसान कैसा- शुरू से ऐसा ही है आदमी तभी तो स्वर्ग से धरती पर आना पड़ा.
जवाब देंहटाएंबुद्धि के पार जो मिलता है वह तृप्तिदायक है पर मन उसमें टिकना जानता ही नहीं..स्वागत व आभार प्रतिभा जी !
हटाएंस्वागत व आभार गगन जी !
जवाब देंहटाएंकविता बहुत ही खूबसूरत है...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएं