मज़दूर
घास काटने की मशीन का शोर
आ रहा है अनवरत
साथ में उस तेल की गंध
जो मज़दूर ने मशीन में डाला होगा
जनवरी की एक सुबह
पर धूप इतनी तेज है
मानो दोपहर का समय हो
मुँह को कपड़े से ढाँपे वह दत्तचित्त होकर
काटता जा रहा है
घरों के आगे बने बगीचों की घास
शायद सारा दिन उसे यही करना है आज
घास के छोटे-छोटे तिनके
चिपक जाते हैं उसके कपड़ों पर
शायद अभ्यस्त हो चला होगा
उन लाखों मज़दूरों की तरह
जो बंद फ़ैक्टरियों में काम करते हैं
शोर और अजीब-अजीब गंधों के बीच
या उन खदान मज़दूरों की तरह
जो धरती से नीचे कितनी गहराई में
ख़तरों का सामना करते हैं
मालिकों के लिए
सोना, चाँदी और कोयला लाकर
उनके ख़ज़ाने भरते हैं !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 26 जनवरी 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंएक दिन चर्या उतार दी कागज़ पर ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर
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