बुधवार, अक्तूबर 9

तृप्ति भीतर ही पलती


तृप्ति भीतर ही पलती



एक यात्रा बाहर की है
एक यात्रा भीतर चलती,
बाहर सीमा राहों की है
अंतर में असीमता मिलती !

बाहर प्रायोजित है सब कुछ
 भीतर सहज घटे जाता है,
एक थकन ही शेष है बाहर
 गहन शांति भीतर घटती !

भ्रम ही बाहर आस बंधाता
 निष्पत्ति में खाली हाथ,
निज घर में पहुंचाती सबको
 कलिका मन की जब भी खिलती !

 अंतहीन हैं चाहें मन की
पूर्ण हुई इक दूजी हाजिर,
 भीतर जाकर ही जाना यह
तृप्ति भीतर ही पलती !

22 टिप्‍पणियां:

  1. अत्यंत सुंदर कालिका .....ज्यों खिली हुई हो तृप्ति ....
    बहुत सुंदर भाव अनीता जी ....

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  2. अनीता जी कली की तस्वीर मैंने सेव कर ली है .....स्वर मंदिर पर डालूँगी

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    1. अनुपमजी, स्वागत व आभार...चित्र वाकई सुंदर है..

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  3. बहुत सुन्दर रचना...नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

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    1. ओंकार जी, माहेश्वरी जी व प्रदीप जी आप सभी का स्वागत व आभार !

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  5. हम ज्यादातर बाहर इस भौतिक संसार मैटीरियल कांशसनेस ,में ही रहते हैं। OFTEN WE LIVE IN NONEXISTENCE .

    हम तो बॉडी कांशसनेस से लिपटे हैं उससे मुक्त हो तो जानें अन्दर क्या है अन्तश्चेतना की भीतरी परतों में। बहुत बढ़िया रचना सूक्ष्म का ,अकायिक तत्व का, दिव्यचेतना का स्पर्श करती हुई। नान -मैटीरियल कांशसनेस की ओर ले जाती हुई। शुक्रिया आपकी टिप्पणी का।

    ध्यान क्यों भंग होता है मेडिटेशन में ,दिविशन में इस विषय पर जल्दी ही लिख्खुन्गा।

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  6. दिक्कत यह ही की जीवन केवल भीतर ही नहीं न दीदी ? बहुत कुछ बाहर भी है बाहर और भीतर का संगम .... आँख खुलने से पहले ही बहुत खुछ विरासतें मिल चुकी होती हैं ...उन्हें अकर्ता भाव से भी करो तो भी वो बाहर तो खींचती ही हैं

    दीदी क्या जीवन केवल अपनी संतुष्टि के लिए है ?

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  7. आनन्द भाई, जीवन तो बाहर और भीतर दोनों तरफ है, पर वास्तव में हम भीतर जाते ही कहाँ हैं.सतह पर ही जिए चले जाते हैं, शांत होकर अपने मन की गहराई में जाने पर पता चलता है जिसे हम बाहर खोज रहे थे वह ख़ुशी भीतर यूँ ही बिखरी पड़ी है जैसे हवा और धूप...ध्यान साधना का यही तो लक्ष्य है...तृप्त मानव ही तो औरों को भी खुशी दे सकता है..

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    1. हाँ दी हम सतह पर ही होते हैं लगभग हमेशा कभी कोई पल जब हम गहरे पैठते हैं बहुत कम होते हैं, मगर मेरा प्रश्न कुछ और भी था दीदी !

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  8. बहुत ही सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति |

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  9. तृप्ति मन के भीतर ही है ..... सुंदर और सटीक बात कही है ।

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    1. इमरान, ओंकार जी व संगीता जी आप का स्वागत व आभार !

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  10. भीतर जाकर ही जाना यह
    तृप्ति भीतर ही पलती !

    इसीलिए मन की यात्रा भीतर से बाहर की ओर हो हम संसार में रहें संसार हमारे अन्दर न आने पाए। अन्दर का परितोष ,अन्दर सम्पूर्णता ,अन्दर प्रसन्नता ही समत्व है कहीं कोई बाहर का मोह नहीं वासना नहीं।

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  11. अनुपम रचना ..नवरात्रि की शुभकामनाएँ ..

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