शनिवार, जून 7

तृषित उर को पोषता सा


तृषित उर को पोषता सा


अनदिखा है मीत कोई
अनलिखा है गीत कोई,
दौड़ती रग-रग में जैसे
अनछुई सी प्रीत कोई !

एक मादक शाम हो ज्यों
गोपियों का गाम हो ज्यों,
रम रहा हर रोम में जो
जानकी का राम हो ज्यों !

कार्तिक की धूप जैसा
कामिनी के रूप जैसा,
 तृषित उर को पोषता सा
 मधुर जल के कूप जैसा !

राह का साथी बना हो
पेड़ पीपल का घना हो
पोंछ देती हर उदासी
विरह की सी वेदना हो !




9 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन कब होगा इंसाफ - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. दिल को छूने वाली कविता

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  3. कार्तिक की धूप जैसा
    कामिनी के रूप जैसा,
    तृषित उर को पोषता सा
    मधुर जल के कूप जैसा !

    वाह वाह।

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  4. सार्थक व् सुन्दर अभिव्यक्ति .बधाई

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  5. मन का नीरव कोना
    जिसमें गूँजे उसका मौन
    तहखानों में धूप बिखेरे
    मेरा अपना कौन
    नयनों से ओझल है किन्तु
    बजाये मन के तार ।।

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