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बुधवार, सितंबर 25

मिलन धरा का आज गगन से

मिलन धरा का आज गगन से



काले कजरारे मेघों का 

गर्जन-तर्जन सुन मन डोले,  

छम-छम बरसा नीर गगन से 

मलय पवन के सरस झकोले !


चहुँ दिशा से जलद घिर आये 

कितने शुभ संदेश छिपाए, 

आँखों में उतरे धीरे से 

कह डाला सब फिर बह जायें !


उड़ते पत्ते, पवन सुवासित 

धरती को छू-छू के आये, 

माटी की सुगंध लिए साथ 

हर पादप शाखा सहलायें !


ऊँचे, लंबे तने वृक्ष भी 

झूमें, काँपें, बिखरे पत्ते, 

छुवन नीर  की पाकर प्रमुदित 

मिलन धरा का आज गगन से !


ऊपरे नीचे जल ही जल है  

एक हुए धरती आकाश, 

खोयीं सभी दिशाएँ जैसे 

कुहरे में डूबा है प्रकाश !




शुक्रवार, जुलाई 12

चाह

चाह 



वह तैरना चाहती है नीले स्वच्छ जल में 

मीन की भाँति 

(पर जल अब विमल शेष ही कहाँ है ?)


वह दौड़ाना चाहती है सर्राटे से 

कार भीड़ भरी सड़कों से निकालते हुए 

या खुले वाहन विहीन मार्गों पर 

(पर ऐसे रास्ते बचे कहाँ है और प्रदूषण बढ़ाने का उसे क्या हक़ है ? )


वह लिखना चाहती है कई बेस्ट सेलर पुस्तकें 

प्रसिद्ध लेखकों की तरह 

( ज्ञान तो पहले से ही बहुत है, उस पर चलना भर  शेष है, फिर 

अहंकार को मोरपंख लगाने से तो मार्ग और लंबा हो जाएगा )


वह बोलना चाहती है फ़र्राटे से कन्नड़, अंग्रेज़ी और कई भाषाएँ 

( पर मौन और मुस्कान की भाषा लोग भूल गये हैं )


वह चित्र बनाना चाहती है 

चटख, चमकीले रंगों से 

( पर आकाश और धरती रंगे जा रहा है कोई अदृश्य कलाकार प्रतिपल) 


वह जो है, जहां है, जैसी है 

वैसी ही जीना चाहती है 

अपने आप में तृप्त 

(आत्मा का साम्राज्य वहाँ है !)


मंगलवार, जनवरी 30

जल

जल 

हम छोटे-छोटे पोखर हैं 

धीरे-धीरे सूख जाएगा जल 

भयभीत हैं यह सोचकर 

सागर दूर है 

पर भूल जाते हैं 

सागर ही 

बादल बनकर बरसेगा 

भर जाएँगे पुन:

हम शीतल जल से

नदिया बन जल ही 

दौड़ता जाता है  

सागर की बाहों में चैन पाता है ! 


शुक्रवार, मार्च 24

एक मुल्क


एक मुल्क 


जैसे कोई जल 

विलग हो जाए 

बहते दरिया से 

तो सूखने लगता है 

वैसे ही झुलस रहा है एक मुल्क 

अपने स्रोत से बिछड़ा 

खानाबदोश सा कोई परिवार 

या माता-पिता से रूठा 

नाफ़रमाबरदार बेटा 

जो अगर घर से खतो-किताबत 

 भर शुरू कर दे 

भले न लौटे घर 

तो हालात सुधरने लगते हैं 

प्रेम का रक्त दौड़ने लगता है 

उसकी रगों में 

जिसकी आँच पिघला देती है 

सारी जड़ता 

जो कभी दो थे ही नहीं 

एक ही थे 

वे कैसे पनप सकते हैं अलग होके 

जो एक साज़िश का परिणाम था 

वह स्नेह की छुअन से ही 

हो सकता है पुनर्जीवित 

वह मुल्क कौन सा है 

यह आप भी जानते हैं ! 




गुरुवार, मई 19

मन की मछरिया

 मन की मछरिया 

शब्दों के जाल में 

मन की मछली अक्सर फंस जाती है 

स्रोत से दूर होकर व्यर्थ ही छटपटाती है 

जल से बनी है वह भूल ही जाती है 

चाहे तो पल भर में छिद्रों से निकल जाए 

जाल कोई पल भर भी 

बांध नहीं उसे पाए 

पर रूप धरा झूठा ही 

मोह, माया, मान का 

जाने किस बात की मिथ्या 

आन बान का 

टूटता नहीं भरम इसके अभिमान और गुमान का 

शायद शब्दों का जाल भी स्वयं ही सजाती है

क़ैद किया स्वयं को फिर कसमसाती है 

पल भर भी शांत हो 

पिघल पिघल जाएगी 

जल में विलीन हो जल ही हो जाएगी 

ख़ाली और रिक्त है 

पर रूप नए बनाती  है 

शब्दों के जाल में 

मन की मछरिया !



शुक्रवार, मई 21

प्रसाद

प्रसाद 


बरस रहा है कोई अनाम जल 

जो भिगोता है भीतर-बाहर सब कुछ 

भीग जाता है हर कोना कतरा अंतर  का 

तरावट से भर जाती है मन की माटी

इसका कोई स्रोत नजर नहीं  आता 

पर भर लेती है अपने आगोश में 

 प्रकाश की एक धारा 

बरसती है अकारण कभी-कभी 

शायद सदा ही 

पर नजर आती है कभी-कभी 

जाने क्यों !

शायद वह किसी का सन्देश लाती है 

अंतर को भरने आती है 

प्रेम और करुणा से 

सूना न रहे एक क्षण के लिए भी मन का घट

बहती रहे पुरवाई सदा मन के आंगन में 

वह जताने आती है अकेले नहीं हैं हम 

हर पल कोई साथ है 

 भर देती है अनोखी सिहरन रग-रग में 

 कर देती पावन शब्दों को भी अपने परस से 

कैलाश के हिमशिखरों सा 

 या गंगा के शीतल निर्मल जल जैसा  

मानसरोवर में तैरते हंसों की तरह 

अथवा उषा की लालिमा में छायी सूर्य की प्रथम रश्मि सी  

वह एक नजर है किसी गुरू की 

जो हर लेती है सारा विषाद शिष्य के अंतर का 

या एक स्पर्श  है माँ के हाथों का 

अथवा तो पिता का सबल आधार है 

जो शिशु को डिगने नहीं देता 

इन सबसे बढ़कर वह सहज प्रेम है 

या उसमें सब कुछ समाया है 

वह किसी सीमा में नहीं बंधता 

उसे मापा नहीं जा सकता  

वह अज्ञेय है 

अपार है, अनंत है 

तो फिर यही कह दें 

वह ‘उसी’ का प्रसाद है ! 



 

रविवार, मई 16

उसी शाश्वत में टिकना है


उसी शाश्वत में टिकना है 

मिलना लहरों का क्या आखिर 
अभी बनी हैं अभी बिखरती 
सागर गहरा और अथाह है 
कितने तूफान उठते उसमें 
फिर भी देखो, बेपरवाह है ! 
पवन डुलाती लहरें उसमें  
बड़वानल भी इस सागर में 
फिर भी जरा सोच कर देखें 
जल का ही संग्रह विशाल है 
सागर यदि सूख भी जाए 
जल का न होता अभाव है 
इस प्रपंच का एक तत्व है ! 
ठहरा  है वह वसुंधरा पर
टिकी हुई जो नीले नभ में 
पंच तत्व के पार भी कुछ है 
जो इन सबको जान रहा है 
ज्ञान सदा ही बड़ा ज्ञेय से 
क्यों न सबका उसे श्रेय दें 
ज्ञाता में ही ज्ञान छिपा है 
उसी शाश्वत में टिकना है 
वहीं सहजता वहीं सरसता
वहीं कमल बन कर खिलना है ! 



 

शुक्रवार, दिसंबर 4

लहराएगा मुक्त गगन में

लहराएगा मुक्त गगन में


अभी खोल में ढका बीज है 
अभी बंद है उसकी दुनिया, 
उर्वर कोमल माटी  पाकर 
इक दिन सुंदर वृक्ष बनेगा !

जल से निर्मल भरे ताजगी
धरती से गर्माहट उर में, 
नृत्य पवन से भर-भर पल्लव  
लहराएगा मुक्त गगन में !

शाखाओं पर पंछी आकर 
बैठेंगे मृदु गान सुनाने,
फूलों के खिलने की आशा 
उस पादप के मन अंकुराने !

वही बीज फिर फूल बना नव
खिल जाएगा रूपरंग में, 
भँवरे तितली कीट अनेकों 
गुनगुन गाकर उसे रिझाएं 

मिलन घटेगा अस्तित्व से 
फल बनकर फिर बीज धरेगा, 
जहाँ से आ क्रीड़ा रची यह 
उस भू में रोपा जाएगा !

छुपा बीज में राज सृष्टि का 
खिलकर मुक्त हास जो बांटे, 
तृप्त हुआ वह उर मुस्काता 
सहज गुजर जाता इस जग से !

बुधवार, सितंबर 2

पंच तत्व पावन हैं

पंच तत्व पावन हैं 

 

अश्रु की बाढ़ आयी 

आज गगन रोता है, 

खेत, गाँव, नदी, विजन  

सभी को डुबोता है !

 

क्या भू की पीड़ा ही 

वाष्पित हो नहीं उठी, 

कण-कण बीमार हुआ 

जलवायु विषाक्त बनी !

 

विष घुला पानियों में 

हवा हुई धुँआ-धुँआ,

मनुज की लालसा ने 

आसमानों को छुआ !

 

पशुओं का आश्रय भी 

लील गया लोभ दैत्य,  

बाँध तोड़ बिखर गयी 

वसुधा की पीड़ा यह  !

 

स्वच्छ बने आँचल अब  

पुनःनव सृष्टि रचाए,

मानव फिर एक बार 

अमरता पथ दिखाए  !

 

पंच तत्व पावन हैं 

सादर सुसम्मान हो, 

अपने ही हाथों ना  

स्वयं का अवमान हो !

 

मंगलवार, जुलाई 21

चाहे जो भी रूप धरा हो


चाहे जो भी रूप धरा हो 


जल ही लहर लहर से सागर 
जल ही बूंद भरा जल गागर, 
फेन बना कभी हिम् चट्टान 
वाष्प बना फिर उड़ा गगन पर !

चाहे जो भी रूप धरा हो 
जल तो आखिर जल ही रहता,
मानव मन भी इक नदिया सा 
अविरल अविरत  बहता रहता !

करुणामय बोल कभी बोले 
कभी क्रोध के भाव जगाये, 
कभी मधुर गीतों में डूबा 
लोभ की फिर छलाँग लगाए !

स्वयं नए संकल्प जगाता
खुद ही उनको काट गिराता,
खुद ही निज को कमतर आँकें 
तुलना कर निज को फँसवाता !

अपने ही सिद्धांत बनाये 
टूटें तो रह रह पछताए, 
सहता है उन पीड़ाओं को 
जिनके बिरवे स्वयं लगाए !

सोमवार, मई 25

साँझा नभ साँझी है धरती

साँझा नभ साँझी है धरती 


दोनों के पार वही दर्शन 
जो दृश्य बना वह द्रष्टा है, 
जल लहरों में सागर में भी 
जो सृष्टि हुआ वह सृष्टा है !

हर दिल में इक दरिया बहता 
क्यों दुइ की भाषा हम बोले, 
साँझा नभ साँझी है धरती 
इस सच को सुन क्यों ना डोलें !

नीले पर्वत पीली माटी
हरियाली की छाँव यहीं है !
 तेरा मेरा नहीं सभी का 
दूजा कोई जहान नहीं है, 

हवा युगों से सबने बाँटी
तपिश धूप की, दावानल की, 
जल का स्वाद कभी ना बदला  
पीने वाला हो कोई भी !

सबको इक दिन जाना मरघट 
और निभाना फर्ज एक सा,
किसकी खातिर युद्ध हो रहे 
रिश्तों में है दर्द एक सा ! 


मंगलवार, जनवरी 14

है सारा विस्तार एक से



है सारा विस्तार एक से

सूरज बनकर दमक रहा है बना चन्द्रिका चमक रहा है, झर झर झरती जल धार बना बन सुवास मृदु गमक रहा है ! हरियाली बन बिखराता सुख भाव रूप में मौन व गरिमा कहाँ अलग धरती अम्बर से है सारा विस्तार एक से ! जल का स्वाद, अन्नका पोषण वह ही लपट आग की नीली, उससे ही जग का आकर्षण वही ज्वाला बनी है पीली ! वह ही भाव, विचार, ज्ञान है वह ही लघु, सबसे प्रधान है, उससे कोई कहाँ विलग है जिससे है वह कहाँ अलग है ! जननी है वह सब जीवों की उससे रूप सभी को मिलता, वही पराशक्ति भी अजर वह नाम जहाँ से पैदा होता ! खुद को खुद की जगे कामना ऐसी माया वह ही रचती, जग का पहिया रहे डोलता ऐसा कुछ आयोजन करती ! थामे हुए नजर है कोई आसपास ही सदा डोलती, ग्रह, नक्षत्र सभी की शोभा एक उसी का राज खोलती !



बुधवार, फ़रवरी 20

नभ झाँके जिस पावन पल में


नभ झाँके जिस पावन पल में



सुखद खुमारी अनजानी सी
‘मदहोशी’ जो होश जगाए,
सुमिरन की इक नदी बह रही
रग-रग तन की चले भिगाए !

नीले जल में मन दरिया के
पत्तों सी सिहरन कुछ गाती,
नभ झाँके जिस पावन पल में
छल-छल कल-कल लहर उठाती !

छू जाती है अंतर्मन को
लहर उठी जो छुए चाँदनी,
एक नजर भर देख शशी को
छुप जाती ज्यों पहन ओढ़नी !


सोमवार, सितंबर 10

जलधाराओं का संगीत


जलधाराओं का संगीत 

नभ से गिरती हुई जल धाराएँ
जिनमें छुपा है एक संगीत
जाने किस लोक से आती हैं
धरा को तृप्त कर माटी को कोख से
नव अंकुर जगाती हैं
सुंदर लगती हैं नन्ही-नन्ही बूँदें
धरती पर बहती हुई छोटी छोटी नदियाँ
जो वर्षा रुकते ही हो जाती हैं विलीन
गगन में उठा घनों का गर्जन
और लपलपाती हुई विद्युत रेखा
दिन में ही रात्रि का भास देता हुआ अंधकार
 दीप्त हो जाता है पल भर को
जैसे कोई विचार कौंध जाये मन में
और पुलक सी भर जाये तन में !


सोमवार, जुलाई 23

पावन प्रीत पुलक सावन की



पावन प्रीत पुलक सावन की

कितने ही अहसास अनोखे
कितने बिसरे ख्वाब छिपे हैं,
खोल दराजें मन की देखें
अनगिन जहाँ सबाब छिपे हैं !

ऊपर-ऊपर उथला है जल
कदम-कदम पर फिसलन भी है,
नहीं मिला करते हैं मोती
इन परतों में दलदल भी है !

थोड़ा सा खंगालें उर को
जाल बिछाएं भीतर जाकर,
चलें खोजने सीप सुनहरे
नाव उतारें बचपन पाकर !

पावन प्रीत पुलक सावन की
या फिर कोई दीप जला हो,
गहराई में उगता जीवन
नीरव वन में पुहुप खिला हो !

अम्बर से जो नीर बरसता
गहरे जाकर ही उठता है,
कल का सूरज जो लायेगा
वही उजास आज झरता है !