सत्य
“सत्य समान नहीं कोई पावन
सत्य
आश्रय मन अपावन,
नदियाँ
ज्यों दौड़ें सागर में
सत्य
साध्य है सत्य ही साधन !”
जो
सत्य है वह सहज है
जो
सहज है वह पूर्ण है
जो
पूर्ण है वह तृप्त है
मन
खो जाता है उस तृप्ति का अहसास पाकर
वहाँ
केवल होना है
कोई
चाह नहीं,
इसलिए
उसे पूर्ण करने की त्वरा भी नहीं
कृत्य
नहीं..वहाँ मौन है
पर
उस मौन से मधु रिसता है
सत्य
का वह द्वार भीतर जाकर ही मिलता है
ज्यों
शाखों से फूल झरें सहज ही
वहाँ
से कृत्य भी उतरता है !
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक निवेदन - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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