होना या न होना
होकर भी नहीं होता जो
जैसे..मौन आकाश या अदृश्य अनिल
वास्तव में वही होता है
उसके आरपार निकल जाते हैं शब्द
उल्लास और निराशा के
बिना कुछ हलचल किये
जैसे खो जाता है स्वप्न आँख खुलते ही
खो जाती है परछाई
जो होने का भ्रम पैदा करती थी
वह उतना ही सूक्ष्म हो जाता है
जितना कोई शुद्धतम भाव
जो पकड़ में नहीं आता
भीतर एक अहसास भर दिलाता है अनजाना सा
श्वासें हल्की हो जाती हैं
और उनमें किन्हीं अनाम फूलों की गंध भर जाती है
जो इस जगत की नहीं मालूम पड़ती
होने अथवा न होने दोनों से पार
चला जाता है धीरे धीरे हर अहसास
बिखरा हुआ सा लगता है ज्यों सुबह का उजास !
यही है हमारा मानस जो इस पार और उस पार - दोनो छोरों को छूता है .
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