अमराई से कोकिल स्वर जब
झर-झर झरते हरसिंगार जब
भीतर भी कुछ झर जाता,
कुम्हलाया बासी था जो मन
पल भर में ही खिल जाता !
बही समीरण सुरभि भरे जब
अंतर में कुछ भर जाता,
तंद्रा में अलसाया सा मन
गीत जागरण के गाता !
सोंधी सी जो महक धरा से
पावस ऋतु का दे संदेसा,
सूना सा मन का उपवन झट
शत कमलों से मदमाता !
अमराई से कोकिल स्वर जब
आतुर श्रवणों से टकराता,
गीत जन्म लेते अंतर में
विरह पगा मन अकुलाता !
बहुत सारगर्भित और मनभावन प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंvirah pga mn akulata......ati sundar
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