उसने कहा था
एक ही पाप है
और कितना सही कहा था
उस एक पाप का दंड भोग रहा
है हर कोई
बार-बार दोहराता है
उस एक पाप के बोझ तले दबकर
पिसता है, नींदें गंवाता है
खुद की अदालत में खड़ा होता
है
वादी भी स्वयं है और
प्रतिवादी भी
अपने ही विरुद्ध किया जाता
है यूँ तो हर पाप
यह पाप भी खुद को ही हानि
पहुंचाता है
इसका दंड भी निर्धारित करना
है स्वयं ही
'असजगता' के इस पाप को नाम
दें 'प्रमाद' का
अथवा तो स्वप्नलोक में
विचरने का
जहाँ जरूरत थी... जिस घड़ी
जरूरत थी...
वहाँ से नदारद हो जाने का
यूँही जैसे झाँकने लगे कोई
बच्चा कक्षा से बाहर
जब सवालों के हल बताये जा
रहे हों
या छोड़ दे कोई खिलाड़ी हाथ
में आती हुई गेंद
उसका ध्यान बंट जाये
हर दुःख के पीछे एक ही कारण
है
अस्तित्त्व को हर पल उपलब्ध
होना ही निवारण है
वरना रोना ही पड़ेगा बार-बार
सजगता ही खोलेगी सुख का द्वार !
मन को सजग बनाने के लिये इस कविता को रोज़ पढ़ना होगा।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार दीदी !
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.8.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3435 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ अगस्त २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार !
हटाएंअच्छा लगता है आपकी रचनाओं को पढ़ कर..आध्यात्म और सजगता का तानाबाना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंKitni saadgi se aapne kitni gehri baat kahi hai!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंअपने अस्तित्व से निकल आना ... निर्लप्त हो जाना ... जय पराजय के भाव से बाहर आना ... बुद्दत्व हो जाना ... योगी राज हो जाना ... क्या उस कृष्ण की माया से इतर भी है कुछ ...
जवाब देंहटाएंउसकी माया से इतर वह खुद है...स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएं.. बुद्दत्व हो जाना
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