आस्था का दीप दिल में
कुछ नहीं
है पास अपने
रिक्त है मन का समन्दर
मौन की इक गूंज है या
एक शुभ निर्वाण का स्वर
नीलिमा आकाश की भी
एक भ्रम से नहीं ज्यादा
बह रहा जो पवन अविरत
उसी ने यह जाल बाँधा
श्वास की डोरी में खिंच
चेतना का हंस आया
जाल कैसा बुन दिया इक
रचे जाता अजब माया
जिंदगी के नाम पर बस
एक सपना चल रहा है
ओढ़ कर नित नव मुखौटे
स्वयं को ही छल रहा है
भेज देता वह अजाना
एक स्मित इक हास कोमल
जो छुपा है खेल रच के
भर रहा है परस निर्मल
डोलती है धरा कब से
रात-दिन यूँ ही सँवरते
पंछियों के स्वर अनूठे
रंग अनजाने बिखरते
कौन जाने कब जला था
आस्था का दीप दिल में
या कि उसकी लपट यूँ ही
खो गयी थी बेखुदी में
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.8.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3442 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
बहुत बहुत आभार
हटाएंमन की आस्था ही चैतन्य की इन लहरियों की अनुभूति कर पाती है.
जवाब देंहटाएंकितना सही कहा है आपने..स्वागत व आभार
हटाएंआस्था का भाव मन में ऊर्जा प्रवाहित करता रहता है ... चेतन का आभास देता अहि वर्ना तो अब कुछ माया ही है ...
जवाब देंहटाएंवाह ! कविता का मर्म समझकर सुंदर प्र्तिक्रिया !
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