शुक्रवार, मार्च 29

शाम अब ढलने लगी है



शाम अब ढलने लगी है


आसमां से चाँद झांके
इक चमकती गेंद जैसे रोशनी की
नील अम्बर पर खिला हो
पीतवर्णी पुष्प कोई...
गुलमोहर की पत्तियों से
देखता है खिलखिलाकर
तक रही है इस धरा से
इक कमिलिनी मुस्कुरा कर !
मौन में संवाद घटता
प्रकृति से उल्लास झरता
शाम अब ढलने लगी है
पंछियों का झुण्ड लौटे
कूजते अंतिम स्वरों को
रात्रि की गरिमा लपेटे
तिमिर बढता जा रहा है
कालिमा के पंख खोले  
नीड़ में विश्राम पाकर
फिर जगेंगे कल सुबह वे
सिमट अपने शावकों संग
आँख मूंदे सो गए जो
चहचहाते गीत गाते
दिवस भर जो उड़ रहे थे !

24 टिप्‍पणियां:

  1. कोमल ...सुन्दर भाव ...बहुत उज्जवल सुन्दर रचना ...अनीता जी ...

    जवाब देंहटाएं
  2. नीड़ में विश्राम पाकर
    फिर जगेंगे कल सुबह वे
    सिमट अपने शावकों संग
    आँख मूंदे सो गए जो
    चहचहाते गीत गाते
    दिवस भर जो उड़ रहे थे !
    हमेशा की तरह ये पोस्ट भी बेह्तरीन है
    कुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....!!!

    जवाब देंहटाएं
  3. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (30-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  4. भाव संसिक्त प्रवाह मय रचना ,बेहद का फ्लो औत तारल्य लिए है यह कविता -नुमा गीत जिसमें स्वर ताल भी है .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वीरू भाई, आभार इन सुंदर शब्दों के लिए..

      हटाएं
  5. प्राकृति के अध्बुश रंगों को शब्दों में उतार दिया आपने ... अनुपम दृश्य खींचा है ...

    जवाब देंहटाएं
  6. कोमल भाव लिये सुंदर ओजपूर्ण गीत.

    जवाब देंहटाएं
  7. प्रतिभा जी, माहेश्वरीजी, दिगम्बर जी, रचना जी. आप सभी का स्वागत व बहुत बहुत आभार !

    जवाब देंहटाएं
  8. प्रकृति और दर्शन का अद्भुत तालमेल देखने को मिला आपकी कविताओं में। ..सुखद रहे ये पल।

    जवाब देंहटाएं