कल आज और कल
फ़िक्र कल की क्यों सताए
आज जब है पास अपने,
कल लगाये बीज ही तो
पेड़ बन के खड़े पथ में !
मौसमों की मार सहते
पल रहे थे, वे बढ़ेंगे,
गूँज उनकी दे सुनायी
गीत जो कल ने गढ़े थे !
एक अनुभव एक स्पंदन
सुगबुगाया था मनस में,
एक चाहत लिए आयी
द्वंद्व के इस बाग बन में !
कर्म को पूजा बनाया
एक गौरव पल रहा था,
ध्यान पूजा अर्चना में
जगत सारा जल रहा था !
चेतना कब मुक्त होगी
भेद सारा छिपा इसमें,
कब तलक चलते रहेंगे
बस एक अंधी दौड़ में !
सुन्दर भावपूर्ण ...
जवाब देंहटाएंकल के बीज जब आज पेड़ बन गए हैं तो आज की चिंता कम हो जाना स्वाभिक है ...
कर्म की निरंतरता जीवन मार्ग सुगम करती जाती है ...
सुंदर औए त्वरित प्रतिक्रिया हेतु आभार।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 25 नवम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (26-11-2019) को "बिकते आज उसूल" (चर्चा अंक 3531) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार !
हटाएंसुन्दर रचना....
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत ही अच्छी कविता..!!
जवाब देंहटाएंसुंदर भाव ।
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