बुधवार, नवंबर 27

तू


तू 


जर्रे जर्रे में छिपा है तू ही
बोलता है हर जुबां से तू ही,
हरेक दिल, हर जिगर का बाशिंदा
हर सवाल का जवाब है तू ही !

हर चुनौती इक खेल है जहाँ में
चप्पे-चप्पे पर बिछा है तू ही,
हर दर्द तुझसे मिलने का सबब
हरेक तरंग, हर लहर है तू ही !

किसलिए डरें, तंज करें जग  पर
जब कि हर बात बनाता है तू ही,
तुझ से उपजा हर फलसफा जग का
तेरी रहमत जानता है तू ही !

हर फ़िक्र तुझसे दूर रखती है
हर निशां से झलकता है तू ही,
हर  रस्ता मंजिल की तरफ  जाता
इशारे दिए जाता है तू ही !

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.11.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3533 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की गरिमा बढ़ाएगी

    धन्यवाद

    दिलबागसिंह विर्क

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  2. बहुत सुंदर रचना।
    कोई एक तो है जिसपर हम आँख मूँद के बिना शिकवा शिकायत के भरोसा करते हैं।

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    1. सही कहा है आपने, वही तो है जिसने यह सारा खेल रचा है

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  3. हा सू तू ही है ... हर सिम्त तेरा नज़ारा ...
    जब सब कुछ उस पर ही है तो फ़िक्र काहे की ... जीवन आनद से कट जायेगा ... सुन्दर रचना ...

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    1. स्वागत व आभार ! फ़िक्र तो तभी होती है जब उससे दूरी होती है

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  4. वाह !बहुत ही सुन्दर सृजन आदरणीया
    सादर

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