गुरुवार, दिसंबर 5

लहर उठी सागर में ऐसे


लहर उठी सागर में ऐसे



अभी-अभी इक लहर उठी है
अभी-अभी  इक महक जगी है,
अभी-अभी इक कुसुम खिला है
अभी-अभी इक बूँद झरी है !

लहर उठी सागर में ऐसे
दूर कहीं जाना हो जैसे,
तट से टकरा लौट ही गयी
आहत हुआ सजल तन कैसे !

सागर बाँह पसारे ही था
दिया आश्रय लहर को ज्यों ही,
गहन मिला विश्राम उसी पल
लौट गया ज्यों पंछी घर को !

मन भी दौड़ लगाना चाहे,
किंतु कहीं भी चैन न मिलता !
सागर जैसे उस अनंत को
पाकर ही मन मुकुर निखरता !

कभी कमल बन खिल जाता मन
किंतु महक भी साथ छोड़ती,
पल दो पल में कुम्हला जाता
चाहे वर्षा धार डुबोती !

सुख का स्रोत कहीं तो होगा
जो रूप, रस, गंध उड़ेंले,
अमिय अमित जो चाहे चखना
उस से जाकर  नाते जोड़े !



2 टिप्‍पणियां:

  1. सुख का सोता अंतःकरण से फूटे तभी बाह्यजगत में उसकी प्राप्ति संभव है ,अन्यथा खोजते ही जन्म बीत जाता है.

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  2. सही कहा है आपने, सब कुछ भीतर बाहर नाहिं ! स्वागत व आभार प्रतिभा जी !

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