तन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
तन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, जून 18

हम आत्मदेश के वासी हैं

हम आत्मदेश के वासी हैं 


भीतर एक ज्योति जलती है 

जो तूफ़ानों में भी अकंप, 

तन थकता जब मन सो जाता

जगा रहता आत्मा निष्कंप !


तन शिथिल हुआ मन दृढ़ अब भी 

‘स्वयं’ सदा जागृत है भीतर, 

हम आत्मदेश के वासी हैं 

फिर क्यों हो जरा-मृत्यु से डर !


मृत्यु पर पायी विजय हमने 

जिस पल भीतर देखा ख़ुद को, 

नित मौन अटल घटता अंतर

बाहर बैठाया हर  दुख को  !


जीवन की संध्या आती है 

कब मेला यह उठ जाएगा ? 

नहीं शिकायत कोई जग से 

संग ‘वही’ अपने जाएगा  !


शनिवार, अगस्त 26

जगत और तन

जगत और  तन 


कितना भी बड़ा हो 

जगत की सीमा है 

या कहें जगत ही सीमा है 

निस्सीम के आँगन में खिला एक फूल हो जैसे 

कोई चाहे तो बन सकता है 

उसकी सुवास 

और तब असीम में होता है उसका निवास 

घुल-मिल जाता है उसका वजूद 

अस्तित्त्व के साथ 

और बँटने लगता है 

जगत के कोने-कोने में !

जैसे तन स्थिर है 

मन के आकाश में 

बन जाये तन यदि चेतन 

तो एक हो जाता है मन से 

ओए शेष रह जाती है ऊर्जा अपार 

जो  बिखर  जाती है बन आनंद

जगत में ! 


सोमवार, अक्टूबर 24

आलोकित होगा जीवन पथ

आलोकित होगा जीवन पथ


तन माटी का इक घट जिसमें 

मन कल-कल जल सा नित बहता,

 परितप्त हुआ फिर  शीतल सा  

बन वाष्प  उड़ा  नभ में जाता !

 

या तन माटी का घट जिसमें 

उर बसा नवनीत सा कोमल, 

जिसे चुरा ले जाता नटखट 

गोकुल वाला कान्हा  श्यामल !


बना  सोम, वरुण, देव पावक

वही अनोखे खेल रचाता, 

तोड़ बंध जो आये बाहर 

निज हाथ थमाए ले जाता !


यदि तन माटी-दीप बना लें  

प्रेम स्नेह से बरबस निखरे ,  

गति जिसकी ऊपर ही ऊपर 

प्रखर आत्मज्योति जल बिखरे !


ताप हरेगा हर विकार तब 

आलोकित होगा जीवन पथ, 

ज्योति परम से सहज जुड़ेगी 

दीवाली का यही शुभ अर्थ ! 



गुरुवार, जून 30

खुशबू निशानी सी

खुशबू निशानी सी

जाने कहाँ से आ रही
खुशबू रुहानी सी !

तन मन डुबोए जा रही
खुशबू सुहानी सी !

मदमस्त यह आलम हुआ
खुशबू  अजानी सी !

नासपुटों में समा रही
खुशबू पुरानी सी !

जाने से पूर्व  रख गया
खुशबू निशानी सी !

रग-रग में बहे रक्त सी
खुशबू रवानी सी !

सुरति के तार छेड़ गयी
खुशबू कहानी सी !

आयी नहीं राहें तकी
खुशबू न मानी सी !

सोमवार, मई 30

तथागत ने कहा था

तथागत ने कहा था


ऐसा है, इसलिए वैसा होगा 

उससे बचना है, तो इसे तजना होगा 

तथागत ने कहा था !

पल-पल बदल रहा जगत

जहाँ जुड़ी है हर वस्तु दूसरे से

थिर नहीं तन-मन दोनों 

 आश्रित इकदूजे पर 

इनसे प्रेम करना तो ठीक है 

पर उम्मीद करना 

इनके लिए प्रेम की 

दुःख ही उपजाता 

है वह सदा एक 

 जहाँ से प्रेम आता  

अनुभव बदल जाएं पर 

 नहीं बदलता अनुभवी

उसे जान सकता है 

दुःख के पार हुआ मन ही !

 

सोमवार, दिसंबर 14

कोई नानक ध्यान लगाता

 कोई नानक ध्यान लगाता 

हम भीतर से अनभिज्ञ सदा 
बस बाहर-बाहर जीते हैं, 
अंतर पटल उलझने देते 
तन हित पट रेशम सीते हैं !

जब बाहर थे अम्बार लगे 
अतुलित दौलत धन वैभव के, 
भीतर कुछ घटता जाता था 
जिसको ना इसमें सार लगे !

जब इर्द-गिर्द सीमाएं रच 
रिश्तों को उनमें कैद किया, 
कुछ टूट गया था भीतर भी 
जब जीवन पर सन्देह किया !

उर डरा कभी सिर भी थामा
तन ने कितने सन्देश दिए, 
मुस्कान कहाँ वह भीतर की 
ऊपर-ऊपर लब  हँसा किये !

मस्तिष्क के तंतु रोते हैं 
धड़कन दिल की जब बढ़ जाये, 
कम्पन अंगों में होता है
हम लेकिन देख कहाँ पाए !

भीतर की रग-रग से वाकिफ 
कोई नानक ध्यान लगाता, 
इक-इक रेशे को पोषित कर 
बाहर भी सुख-चैन लुटाता ! 

 

बुधवार, सितंबर 9

जरा जाग कर देखा खुद को

जरा जाग कर देखा खुद को 

 

स्वप्न खो गए जब नींदों से 

चढ़ा प्रीत का रंग गुलाल, 

दौड़ व्यर्थ की मिटी जगत में 

झरा हृदय से विषाद, मलाल !

 

द्रष्टा  बन मन जगत निहारे 

बना कृष्ण का योगी,अर्जुन,

कर्ता का जब बोझ उतारा

कृत्य नहीं अब बनते बन्धन !

 

श्वास चल रही रक्त विचरता 

तन अपनी ही धुन में रमता, 

क्षुधा उठाते प्राण, तृषा भी 

कहाँ साक्षी कुछ भी करता !

 

जरा जाग कर देखा खुद को 

सदा पृथक जग से पाता है, 

युग-युग से यह खेल चल रहा 

विवर पात सा उड़ जाता है !

 

वृक्ष विशाल, गगन को छूते  

क्या करते वे, सब होता है, 

जग यूँ ही डोलेगा कल भी 

बोझ न उर पर वह ढोता है !

 

 

सोमवार, अगस्त 10

मन पंकज बन खिल सकता था !


मन पंकज बन खिल सकता था


 

तन कैदी कोई मन कैदी 

कुछ धन के पीछे भाग रहे, 

तन, मन, धन तो बस साधन हैं 

बिरले ही सुन यह जाग रहे !

 

रोगों का आश्रय बना लिया 

तन मंदिर भी बन सकता था, 

जो मुरझा जाता इक पल में  

मन पंकज बन खिल सकता था ! 

 

यदि दूजों का दुःख दूर करे 

वह धन भी पावन कर देता, 

जो जोड़-जोड़ लख खुश होले  

हृदय परिग्रह से भर लेता !

 

जब  विकल भूख से हों लाखों 

 मृत्यू का तांडव खेल चले, 

क्या सोये रहना तब समुचित 

पीड़ा व दुःख हर उर में पले !

 

मुक्ति का स्वाद चखे स्वयं जो  

औरों को ले उस ओर चले, 

इस रंग बदलती दुनिया में 

कब कहाँ किसी का जोर चले !

 


गुरुवार, अप्रैल 9

नींद


नींद 


कल रात फिर नींद नहीं आयी 
नींद आती है चुपचाप 
दबे पावों... और कब छा जाती है 
पता ही नहीं लगने देती 
कई बार सोचा 
नींद से हो मुलाकात 
कुछ करें उससे दिल की बात 
प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा थी 
उसके आने की कहीं दूर-दूर तक आहट नहीं थी 
नींद आने से पहले ही होश को सुला देती है 
स्वप्नों में खुद को भुला देती है 
कभी पलक मूँदते ही छा जाती है खुमारी 
अब जब करते हैं उसके स्वागत की तैयारी
तो वह छल करती है 
वही तो है जो रात भर तन में बल भरती है 
चहुँ ओर दौड़ते मन को चंद घड़ी देती है विश्राम 
जहाँ इच्छाओं का जमावड़ा बना ही रहता है 
कोई न कोई अड़ियल ख्याल खड़ा ही रहता है 
जहाँ विचारों के हवा-महल बनते बिगड़ते हैं 
पल में ही मन के उपवन खिलते-उजड़ते हैं 
नींद की देवी चंद घड़ियां अपनी छाया में पनाह देती है 
पर कल रात वह रुष्ट थी क्या 
जो भटके मन को घर लौटने की राह देती है ! 


गुरुवार, दिसंबर 5

लहर उठी सागर में ऐसे


लहर उठी सागर में ऐसे



अभी-अभी इक लहर उठी है
अभी-अभी  इक महक जगी है,
अभी-अभी इक कुसुम खिला है
अभी-अभी इक बूँद झरी है !

लहर उठी सागर में ऐसे
दूर कहीं जाना हो जैसे,
तट से टकरा लौट ही गयी
आहत हुआ सजल तन कैसे !

सागर बाँह पसारे ही था
दिया आश्रय लहर को ज्यों ही,
गहन मिला विश्राम उसी पल
लौट गया ज्यों पंछी घर को !

मन भी दौड़ लगाना चाहे,
किंतु कहीं भी चैन न मिलता !
सागर जैसे उस अनंत को
पाकर ही मन मुकुर निखरता !

कभी कमल बन खिल जाता मन
किंतु महक भी साथ छोड़ती,
पल दो पल में कुम्हला जाता
चाहे वर्षा धार डुबोती !

सुख का स्रोत कहीं तो होगा
जो रूप, रस, गंध उड़ेंले,
अमिय अमित जो चाहे चखना
उस से जाकर  नाते जोड़े !



मंगलवार, मार्च 12

बिखरा दूँ, फिर मुस्का लूँ



बिखरा दूँफिर मुस्का लूँ 


खाली कर दूँ अपना दामन
जग को सब कुछ दे डालूँ, 
प्रीत ह्रदय की, गीत प्रणय के
बिखरा दूँ, फिर मुस्का लूँ !

तन की दीवारों के पीछे
मन मंदिर की गहन गुफा,
जगमग दीप उजाला जग में
फैला दूँ, फिर मुस्का लूँ !

अंतर्मन की गहराई में
सुर अनुपम नाद गूंजता,
चुन-चुन कर मधु गुंजन जग में
गुंजा दूँ, फिर मुस्का लूँ !

भीतर बहते मधुमय नद जो 
प्याले भर-भर उर पाता,
अमियसरिस रस धार जगत में
लहरा दूँ, फिर मुस्का लूँ !

हुआ सुवासित तन-मन जिससे
 भरे खजाने हैं भीतर
सुरभि सुगन्धित पावन सुखमय
छितरा दूँ, फिर मुस्का लूँ !


सोमवार, सितंबर 10

जलधाराओं का संगीत


जलधाराओं का संगीत 

नभ से गिरती हुई जल धाराएँ
जिनमें छुपा है एक संगीत
जाने किस लोक से आती हैं
धरा को तृप्त कर माटी को कोख से
नव अंकुर जगाती हैं
सुंदर लगती हैं नन्ही-नन्ही बूँदें
धरती पर बहती हुई छोटी छोटी नदियाँ
जो वर्षा रुकते ही हो जाती हैं विलीन
गगन में उठा घनों का गर्जन
और लपलपाती हुई विद्युत रेखा
दिन में ही रात्रि का भास देता हुआ अंधकार
 दीप्त हो जाता है पल भर को
जैसे कोई विचार कौंध जाये मन में
और पुलक सी भर जाये तन में !


गुरुवार, अप्रैल 30

मौसम

मौसम

आते हैं जाते हैं
वृक्ष पुनः पुनः बदला करते हैं रूप
हवा कभी बर्फीली हो चुभती है
कभी तपाती आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर
भीग-भीग जाती है  
निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी
बचपन भी एक मौसम है
और एक ऋतु तरुणाई की
जब फूटने लगती हैं कोंपलें मन के आंगन में
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार
फिर मौसम बदलता है
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता है मन
कैसा पावन हो जाता प्रौढ़ का मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा
समेट लेता है
छोटी बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है
मृत्यु के मौसम में..

बुधवार, मई 16

एक अजब सी अकुलाहट है


एक अजब सी अकुलाहट है

तन के कण-कण में विद्युत है
जहाँ जोड़ दो वह भर देती,
इक उलझन भी समाधान भी
घोर अँधेरा अथवा ज्योति !

बाहर प्राण ऊर्जा बिखरी
दैवी भी आसुरी भी है,
जिसे ग्रहण करने को आतुर
उससे युक्त सदा करती है !

द्रष्टा जिससे जुड़ जाता है
वही भाव प्रबल हो जाता,
पृथक रहे यदि वह उससे
क्षोभ न कोई छू भी पाता !

जंग लगे जब मन-बुद्धि में
एक अजब सी अकुलाहट है,
विष जब भीतर बढ़ने लगता
बढ़ती जाती घबराहट है !

रोग बनी फिर तन में रहती
या नृत्य की थिरकन बनती,
एक ऊर्जा जीवन देती
वही प्राण में सिहरन भरती !  

शुक्रवार, अक्टूबर 22

मन छोटा सा

मन छोटा सा

चाह मान की जिसे जिलाए
वह है अपना छोटा सा तन,
कुछ पाने की आस लगाये
वह है अपना छोटा सा मन !

अमन हुआ जब मुक्त हो गया
त्यागी तृष्णा रिक्त हो गया,
लाखों हैं मेधा में बढ़ कर
जाना जब तब सिक्त हो गया !

मान की आशा ले डूबती
मदकी नैया सदा टूटती,
ख़ुदसे ही आगे जाना है
दुइ की गागर सदा फूटती !

सहज रहें जैसे हैं बादल
पंछी, पुष्प, चाँद औ'तारे,
भीतर जाकर उसको देखें
जिससे निकले हैं स्वर सारे !


अनिता निहालानी
२२ अक्तूबर २०१०