अंतरलोक
देश-काल से परे है जो
आधार है सृष्टि का
उस जीवन से आँख मिलाकर ही
कोई इस जीवन से हाथ मिला सकता है
उस अदृश्य लोक से भरकर प्रकाश
इस अंधकार में नन्हा सा ही सही
एक दीपक जला सकता है
बादल कहीं से तो भरते हैं खुद को
बदल देते हैं मरुथलों को चारागाहों में
सुवास लती हैं हवाएं उपवनों से गुजर
अंतर शांति से भर लेता है जो मन
निज आकाश को
बना देता है मैत्री पल वही जगत में
वैर से हल नहीं होते छोटे से मतभेद तक
रक्त क्रांतियां छोड़ जाती हैं गहरे घाव
इतिहास बनते हैं बुद्ध और महावीर की
करुणा के फैलाव में
जो आती है अंतर की गहराई से
परे है जो देश-काल से !
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26.12.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3561 में दिया जाएगा । आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
हटाएंजी नमस्ते आदरणीया अनीता जी आपकी रचना वक्त चुराना होगा हमने लिंक किया था पाँच लिंक के पेज़ पर जो अब दिखलाई नहीं दे रहा कृपया मदद करें हमारी।
जवाब देंहटाएंसादर।
श्वेता जी, कृपया अब देखें
हटाएंसच है देश काल और अनेक सीमाओं से परे हो कर ही बुद्ध बना जाता है ...
जवाब देंहटाएंनिर्माण और निर्वान दोनों ही आसान नहीं ...
स्वागत व आभार !
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