चाहे तो
कभी कुछ भी नहीं बिगड़ता इतना
कि सुधारा ही न जा सके
एक किरण आने की
गुंजाइश तो सदा ही रहती है !
माना कि अंधेरों में कभी
विष के बीज बो डाले थे किसी ने
फसल नष्ट कर दे
कुदरत इतनी दयावान तो
हो सकती है !
यहाँ अंगुलिमाल भी
घाटे में नहीं रहता सदा के लिए
किसी रत्नाकर की क़िस्मत
पलट सकती है !
न भय न अफ़सोस जता
कि बात बिगड़ी हुई
इसी पल में बन सकती है
संकल्प में शक्ति जगे तो
पर्वत भी मार्ग दे देते हैं
हर मात शह में टल सकती है
जब ‘वही’ है सूत्रधार इस नाटक का
चाहे तो पर्दा गिरने से पहले
भूमिका बदल सकती है !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 30 नवम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत आभार !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (01-12-2021) को चर्चा मंच "दम है तो चर्चा करा के देखो" (चर्चा अंक-4265) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
हटाएंवाह!अनीता जी ,लाजवाब सृजन ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएं"माना कि अंधेरों में कभी
जवाब देंहटाएंविष के बीज बो डाले थे किसी ने
फसल नष्ट कर दे
कुदरत इतनी दयावान तो
हो सकती है !" ... काश !!! क़ुदरत उन विष - बेलों को चुन-चुन कर तेज़ाब से नहला देती .. बस यूँ ही ...
प्रकृति सत्य का सदा साथ देती है, स्वागत व आभार!
हटाएंअनुपम रचना...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंस्वागत व आभार भारती जी!
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