बुधवार, नवंबर 15

चिनार की छाँव में - तृतीय भाग

चिनार की छाँव में - तृतीय भाग

पहलगाम की सैर


दोपहर के भोजन का समय हो चला था, अत: मार्ग में पड़ने वाले एक ढाबे में रुके, जहाँ स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन बड़े स्नेह से परोसा जा रहा था। हमारा अलग पड़ाव था आठवीं शताब्दी में बना अनंतनाग जिले के अवंतीपुर में झेलम नदी के किनारे  स्थित एक प्राचीन विष्णु मंदिर अर्थात अवंती स्वामी मंदिर।जिसके मुख्य प्रांगण में एक बड़े आयताकार भूभाग के मध्य में एक मंदिर है। मुख्य मंदिर के चारों कोनों पर चार छोटे मंदिर हैं। आंगन की परिधि के चारों ओर कमरे बने हैं तथा खंभे हैं, और एक विशाल द्वार है। इस मंदिर में पत्थर की दीवारों पर अति सुंदर मूर्तियां बनी हुई हैं जो वास्तुशिल्प और कला का उत्कृष्ट नमूना हैं। प्रवेश करते ही एक गाइड हमारे साथ हो लिया और कहानी सी सुनाते हुए मन्दिर के इतिहास के बारे में बताने लगा।उसने विष्णु, भूदेवी तथा लक्ष्मी देवी की मूर्तियों को भी दिखाया। बालकृष्ण की एक मुस्कुराती हुई मूर्ति ने सबका मन मोह लिया। मध्यकाल में हुए विदेशी आक्रमणों तथा मौसम की मार द्वारा ये मंदिर खंडहरों में तबदील हो गए हैं। फिर भी कुछ मूर्तियाँ अभी भी अपनी आनंद मुद्राओं के द्वारा आकर्षित करती हुई बची हुई हैं तथा भारत के गौरवशाली अतीत की गाथा सुना रही हैं।  इस नगर की स्थापना का श्रेय उत्पल वंश के पहले राजा अवंती वर्मन (855-883 ईसवी) को दिया जाता है।​​राजा ने अवन्तिपुर में दो भव्य मंदिरों की स्थापना की थी। एक भगवान विष्णु का मंदिर, जिसे अवंती स्वामी मंदिर कहते हैं और दूसरा भगवान शिव का मंदिर, जिसे अवंतीश्वर मंदिर कहते हैं। मंदिर में कर्मचारी रख-रखाव का कार्य भी कर रहे थे, जिसमें ब्रश की सहायता से मूर्तियों पर लगी मिट्टी को धीरे-धीरे हटाया जाता है। सुंदर बगीचा भी थी, जिससे वातावरण अति शांत और  मनोहर लग रहा था।पर्यटक अपनी-अपनी रुचि के अनुसार स्थान पर खड़े होकर तस्वीरें उतार रहे थे।


इसके बाद हम पहलगाम के मुख्य बाज़ार में आ गये और यहाँ पहला पड़ाव था फूलों और हरियाली से भरा एक सुंदर बगीचा, जहाँ लोग कश्मीरी ड्रेस पहन कर तस्वीरें खिंचवा रहे थे। इसके बाद पोनी पर बैठ कर ‘बैसरन’ नामक स्थान देखने गये, जिसे यहाँ मिनी स्विट्ज़रलैंड कहते हैं। हम छह लोगों में से पाँच ने ही घुड़सवारी करने का निर्णय लिया। रास्ता बेहद ऊँचा-नीचा, फिसलन भरा था। कहीं घाटियाँ थीं तो कहीं खड़ी चढ़ाई। पाँच लोगों के साथ केवल दो ही घोड़े वाले चल रहे थे, यानी तीन घोड़े अपने सवारों को अपने-आप ही ठीक रास्ते पर ले जा रहे थे। कुल मिलकर यात्रा बहुत ही रोमांचक थी, मंज़िल पर पहुँचने तक मार्ग में चार-पाँच जगह रोककर कुछ दर्शनीय स्थान भी दिखाये। जिनमें घाटी में बहती हुई लिद्दर नदी का दृश्य अति सुंदर था। बैसरन पहुँचे तो लगा जैसे किसी कल्पना लोक में आ गये हों। मीलों दूर तक फैले हरे-भरे मैदान व चारागाह, चारों ओर बर्फ से ढके नीले पर्वतों की उच्च शृंखलाएँ। देवदार के वृक्षों की घनी क़तारें और एक तरफ़ बहती निर्मल नदी की कल-कल ! अनेक यात्री वहाँ आये हुए थे, समान बेचने वाले भीठे और कहवा बेचने वाले भी। कुछ खेलों की भी व्यवस्था थी । इधर-उधर घूमते और तस्वीरें खींचते हुए हमने काफ़ी समय वहाँ बिताया। जब ठंड बढ़ने लगी तो वापसी की याद आयी, वापसी की यात्रा भी कम रोमांचक नहीं थी,उतरते हुए घोड़ा झुक जाता था तब ख़ुद को उस पर बैठाये रखने के लिए शरीर को पीछे की तरफ़ खींच कर रखना होता है, यह घोड़ेवाला बताता जा रहा था।पहलगाम बाज़ार में उसी स्थान पर हमारा ड्राइवर इंतज़ार कर रहा था। शाम होते-होते हम होटल लौट आये और कुछ देर विश्राम करके स्वादिष्ट कश्मीरी रात्रि भोज का आनंद लिया।  

 


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