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शुक्रवार, अगस्त 29

बादल है तो बरसेगा ही

बादल है तो बरसेगा ही 


बादल है तो बरसेगा ही 

खेत किसी का सरसेगा ही, 

भरा हुआ है जो अभाव से 

ऐसा मन तो तरसेगा ही !


जल अध गगरी छलकेगा ही 

व्यर्थ हुआ सा ढलकेगा ही, 

आत्ममुग्धता में जो सिमटा 

कदम-कदम पर ठिठकेगा ही !


यौवन इक दिन बीतेगा ही 

ताक़त का घट रीतेगा ही, 

कायाकल्प करा लो जितना 

काल देवता जीतेगा ही !


सोया है जो जागेगा ही 

सपनों में भी भागेगा ही, 

कब तलक बचा-बचा रखोगे 

चोर गठरिया लागेगा ही !


रविवार, जून 22

सपना और संसार

सपना और संसार 

उनकी सांसें आपस में घुल गयी हैं
मन भी हर क्षण जुड़ता है
और अब पकड़ इतनी मजबूत हो गयी है कि
दुनिया की बड़ी से बड़ी तलवार भी इसे काट नहीं सकती
कोई किसी को यूँ ही नहीं सौप देता
अपना आप, अपनी आत्मा
प्यार के अनमोल खजाने को पाकर ही 
अपना सब कुछ खाली कर दिया है
किसी के नाम लिख दिया है मन को
फिर सपने सा क्यों लगता है कभी–कभी संसार
शायद इसलिए कि यहाँ सब कुछ बदलने वाला है

गुरुवार, अक्टूबर 17

हकीकत



हकीकत 


"हर रात सपनों से भरी थी 

दिवस कोई ख़ाली कहाँ था 

कहाँ पाते ओ ! रब तुझे हम 

बंद जग का हर इक मकाँ था" 



जाना कहाँ था, पहुँचे कहाँ हैं 

दाता का दर सदा ही खुला है 


 भटके थे राह अब चेत आया 

क्या वह मिलेगा जो था गँवाया 


भूले हुए जब घर लौट आते 

कहते हैं, फिर न भूले कहाते 


माँ देखे पथ पिता बाट तकते 

जल्दी जरा ठिकाने को लौटें 


अब भी समय है इसे न गँवायें 

अपनी हकीकत जानें, जतायें 


बुधवार, अक्टूबर 4

भावों का अभाव उर खलता


भावों का अभाव उर खलता


बनता सहज अभाव का भाव

 भावों का अभाव उर खलता

टिकी ‘नहीं’ पर  नज़र  सदा ही 

मन ‘है’ को  देख नहीं पाता  !


जग, सोने का अभिनय करता

नूतन रंग सपन में भरता,

पल दो पल का भ्रम है सपना 

 सत्य  देखने से यह डरता  !


 कठिन जगाना जगे हुए को

 जल से तेल न होता हासिल,

फिर भी जतन यहाँ जारी है 

दूर दिखायी देता साहिल !


कभी होश आ खुलेगी आँख 

नभ निज होगा जगेंगी पाँख,

देर न हो जाये डर यह है

रिसता जीवन लाखों सुराख !


शुक्रवार, जुलाई 1

बेबस हृदय बना है दर्शक



बेबस हृदय बना है दर्शक


आज समाज में एक अविश्वास का वातावरण फैला है, सदियों से जो साथ रहते आये थे, उनमें दूरियाँ बढ़ रही हैं, कितने प्रश्न हैं, जिनके उत्तर आपसी सौहार्द में ही छिपे हैं

एक याद भूली बिखरी सी 

अब भी जैसे साथ चल रही, 

सपना होगी सत्य नहीं, जो  

विकट दुराशा हृदय छल रही !


कभी हँसा होगा यह मन भी 

होता खुद को ही कहाँ यकीं,

कभी चले होंगे संग हम

सपनों की सी बात लग रही !


जाने किस दुविधा ने जकड़ा 

कैसे कंटक उग हैं आये, 

शब्दों के अम्बर में ढककर 

कितने विषधर तीर चलाये !


किस गह्वर से उपजी पीड़ा 

बुझा-बुझा सा दिल का दीपक, 

मैत्री का दामन थामा था 

बेबस हृदय बना है दर्शक !


कंपित श्वासें नयन ढगे से 

दिल की धड़कन बढ़ती जाती, 

बरसों में जो चैन मिला था 

कहाँ गँवायी अनुपम थाती !


क्या कोई आशा है अब भी 

हे करूणामय !  तुम्हीं आश्रय, 

कदम-कदम पर हाथ थाम लो 

सिद्ध हो सके पावन आशय !




 

बुधवार, अक्टूबर 21

कुछ अपने दिल की बात करो

 कुछ अपने दिल की बात करो 

तुम दूजों की बातें सुनते 

उनके रंग में नहीं रंगो,

कुछ करो शिकायत निज दुःख की 

कुछ अपने दिल की बात करो !


हो अद्वितीय पहचान इसे 

साहस खोजो एकांत चुनो,

निज गरिमा को पहचान जरा 

जग में सुवास बन कर बिखरो !


वह रब हर इक में छुपा हुआ 

जगने की राह सदा देखे, 

जो उगे नितांत तुम्हारे उर  

उन सपनों को साकार करो !


पहले मन को खंगाल जरा 

कुछ हीरे-मोती जमा करो, 

फिर उन्हें चढ़ाकर चरणों में 

निज भावों का आधान करो !


जो गहराई से प्रकटेगा

संगीत वही कोरा होगा, 

यदि रंग किसी का नहीं चढ़े 

वह गीत तुम्हारा ही होगा !


गुरुवार, फ़रवरी 27

खुल गए जो बंधन कब के

खुल गए जो बंधन कब के



इक यादों की गठरी है इक सपनों का झोला है, जो इन्हें उतार सकेगा उसमें ही सुख डोला है ! जो कृत्य हुए अनजाने या जिनकी छाप पुरानी, कई बार गुजरता अंतर उन गलियों से अक्सर ही ! खुल गए जो बन्धन कब के तज-तज कर पुनः पकड़ता, ढंग यही आता उसको उनमें खुद व्यर्थ जकड़ता ! सुख बन चिड़िया उड़ जाता मन में ही जो उलझा है, जब तक यह नहीं मिटेगा यह जाल कहाँ सुलझा है !

शुक्रवार, जनवरी 18

द्वार खुलें बरबस अनंत में



द्वार खुलें बरबस अनंत में

कहाँ छुपा वह मन मतवाला
गीत गुने जिसने सावन के,
एक सघन सन्नाटा भीतर
नहीं चरण भी मन भावन के !

शून्य अतल पसरा मीलों तक
मदिर, मधुर सा कोई सपना,
कुछ भी नजर नहीं आता है
बेगाना ना कोई अपना !

क्या कोई बोले किससे अब
दूजा रहा न कोई जग में,
कदमों में राहें सिमटी हैं
द्वार खुलें बरबस अनंत में !


मंगलवार, मई 19

नींदें हैं सदियों की



नींदें हैं सदियों की

छोटे से जीवन में
भरना है आकाश,
नन्ही सी बगिया में
पलना है पलाश !

कुछ ही तो पल होंगे
जीवन मुस्काएगा,
पलकों में पल भर ही
सपना भर पायेगा !

नींदें हैं सदियों की
क्षण भर में टूटेंगी,
मंजिल को पाने की
हसरत भी छूटेगी !


मंगलवार, दिसंबर 16

पलट गया है मन

पलट गया है मन



तृप्ति की शाल ओढ़े
सिमट गया मन
दौड़-भाग बंद हुई
खत्म हुआ खेल सब
देखो कैसे मौन हुआ
खुल गयी पोल जब
बातें बनाता था
सपने दिखाता था
स्वयं ही बना कर महल
खुद ही गिराता था
घर का पता मिल गया
लौट गया मन
झूठी थीं शिकायतें
झूठे ही आरोप सब
कुर्सी बचाने को
लगाये प्रत्यारोप सब
राई का पर्वत बना
स्वयं भला बना कभी
दूजों की टांग खींची
बाल की खाल भी
राज सारे खुल गए
पलट गया मन !

बुधवार, जून 13

तब भी तू अपना था


तब भी तू अपना था


तब भी तू अपना था
लगता जब सपना था,
दूर तुझे मान यूँ ही
नाम हमें जपना था !

चाहत कहो इसको
या घन विवशताएँ,
दोनों ही हाल में
दिल को ही फंसना था !

स्मृतियों की अमराई
शीतल स्पर्श सी,
वरन् विरह आग में
जीवन भर तपना था !

तेरी तलाश में
छूट गए मीत कुछ,
मिथ्या अभिमान में
पत्ते सा कंपना था !

पेंदी में छेद है
नजर मन पे पड़ी,
इसको भरते हुए
व्यर्थ ही खपना था ! 

मंगलवार, सितंबर 28

जीवन पल-पल यही सिखाये



जीवन पल-पल यही सिखाये

छोटी-छोटी बातों से जब, 

दीवाना यह दिल अकुलाया,

उलझी अनगढ़ी भाषा को न 

बूझ कोई स्वजन भी पाया !


इधर टटोला उधर निहारा,

समाधान इसका कब पाया,

आतुर हो फिर देखा भीतर 

जहाँ किसी को हँसते पाया !


जिसका होना ही सत्य यहाँ , 

शेष यहाँ सारी भ्रम माया ,

जीवन पल-पल यही सिखाये,

व्यर्थ ह्रदय  सपने बुन आया  !


जरा ठहर जब जाँचा परखा, 

सारे सपने निकले झूठे,

जिनमें कोई सार नहीं था, 

लगे ह्रदय को वही अनूठे !


स्वयं ही उर कामना गढ़ता,

रंग अनोखे उसमें भरता,

रही अपूर्ण यदि किसी कारण 

व्यर्थ स्वयं को घायल करता !


कुछ बन जाये , कुछ यश पाये  

सुख, सुनाम कुछ यहाँ कमाये 

इसी तरह के और स्वप्न भी, 

भाग्य अतीव महान बनाये !


जब भी भीतर जाकर देखा, 

सोया मिला क्षीरसागर में,

हर्षित,पुलकित पाया उसको

सुखमय परम योगनिद्रा में !