मंगलवार, मार्च 13

मुक्ति के सँग बंधन भी है


मुक्ति के सँग बंधन भी है


सोते-सोते युग बीते हैं
अब तो जाग जरा मन मेरे,
चौराहे पर आ पहुँचा है
ठिठके कदम भला क्यों तेरे !

जाने कब यह नैन मुंदेगें
उससे पूर्व नहीं खिलना है ?
सुरभि लिये क्या जाना जग से
बन सूरज जग से मिलना है !

कुदरत तेरी ओर निहारे
इक संकल्प जगा कर देख,
मंजिल राह तका करती है
खींच क्षितिज तक रक्तिम रेख !  

 तज दे तंद्रा सुबह सामने
इक उड़ान भर छूले अम्बर,
दुःख चादर को झट उतार दे
सुख समीर बह रही झूमकर !

अलस बिछौना कब तक भाए
फूलों के सँग कंटक भी हैं,
घटे नहीं जागरण जब तक
मुक्ति के सँग बंधन भी है !

9 टिप्‍पणियां:

  1. अपलक पढता रहा समझता, रहस्य सार गीता का |
    श्लोक हो रहे रविकर अक्षर, है आभार अनीता का ||

    दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक

    dineshkidillagi.blogspot.com

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  2. वाह कितना सुन्दर और सहज उद्बोधन्।

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  3. बहुत सुन्दर...
    आज के युवा वर्ग के लिए एक सार्थक सन्देश देती है आपकी रचना...

    आभार.

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  4. सोते-सोते युग बीते हैं
    अब तो जाग जरा मन मेरे,

    मन जगाता हुआ आह्वान .....
    बहुत सुंदर लिखा है अनीता जी ...

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  5. मुक्ति के सँग बंधन भी है !

    वाह बहुत ही सुन्दर मुक्ति के संग बंधन भी हैं इस एक पंक्ति में बहुत गहन सत्य छिपा है .........हैट्स ऑफ इसके लिए।

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  6. इस कविता को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है।

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  7. अलस बिछौना कब तक भाए
    फूलों के सँग कंटक भी हैं,
    घटे नहीं जागरण जब तक
    मुक्ति के सँग बंधन भी है !

    अद्भुत.....!

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  8. सुख समीर बह रही झूमकर
    उड़ान भरो बस अम्बर चूमकर ..ऐसे ही राह दिखाती रहें आप..आपको नमन..

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