बन जाता जब मानसरोवर मन का दर्पण
हंस तैरते हैं स्मृति के
कैलाश के उत्तंग शिखरों पर
थम जाती है जीवन चेतना
नहीं भाता जगत का कोलाहल
उहापोह अंतर की
ठहर जाता है आलोक प्रज्ञा का
अनवरत धारा बनकर
गंगा की लहरों का नर्तन
स्वर्ण रश्मियों का फैलाव
तृप्त हुआ मन
नहीं भासता अल्प अभाव
जग यह घाट सरोवर का ज्यों
जीते मरते पल पल प्राणी
रोते हंसते गाते खाते
चेहरे बदल गये हों जैसे
चलती हो कोई दीर्घ कहानी
एक सोप ओपेरा है दुनिया -एक ही कहानी ,पात्र बदल जाते हैं हर बार !
जवाब देंहटाएंप्रतिभा जी, सही कहा है आपने..
हटाएंस्वच्छ मन दर्पण में आभासित होते रहते हैं इस दुनिया के सोप ओपेरावाले नित नवीन रूप. घाट पर खड़े हो प्रवाह देखने की तटस्थता आजाए यह बड़ी बात है !
जवाब देंहटाएंवाराणसी में गंगा घाट पर जाकर अनायास ही ऐसा प्रतीत होता है..स्वागत व आभार !
हटाएंक्या उत्कृष्ट भाव है..
जवाब देंहटाएंअमृता ही, स्वागत व आभार !
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