इतने बड़े जहाँ में अपना
नहीं ठिकाना बन पाया,
टूट के सबसे खुद को ढूँढा
सबको खुद में ही पाया !
पास ही था वह मीत खड़ा
हाथ बढ़ाकर छू लेते,
लेकिन रूह को हर ख्वाहिश से
हमने खाली ही पाया !
छुपे हुए थे जाने कितने
ख्वाब खजानों से भीतर,
सदा लुटाया है गीतों को
हमने जी भर भर गाया !
नहीं चुकेगा रस्ता उसका
जो तिल भर भी दूर नहीं,
अपने ही घर में जो बैठा
उसको कहाँ कहाँ पाया !
क्या बात है गहरे जज्बात लिए .....
जवाब देंहटाएंआभार
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंरचना जी व ओंकार जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना |
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