गुरुवार, जून 25

अपने ही घर में जो बैठा



 अपने ही घर में जो बैठा

इतने बड़े जहाँ में अपना
नहीं ठिकाना बन पाया,
टूट के सबसे खुद को ढूँढा
सबको खुद में ही पाया !

पास ही था वह मीत खड़ा
हाथ बढ़ाकर छू लेते,
लेकिन रूह को हर ख्वाहिश से
हमने खाली ही पाया !

छुपे हुए थे जाने कितने
ख्वाब खजानों से भीतर,
सदा लुटाया है गीतों को
हमने जी भर भर गाया !

नहीं चुकेगा रस्ता उसका
जो तिल भर भी दूर नहीं,
अपने ही घर में जो बैठा
उसको कहाँ कहाँ पाया !

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