सुबह की सैर
बाहर
निकलो
न झांको खिडकियों से
घरों
में बैठ-बैठे
दुनिया
बहुत बड़ी है बाहर
खुला
आसमान है
सुंदर
कितना यह जहान है
हजारों
मील का सफर तय कर आये
पंछियों
की सोचो न
चार कदम चल कर
बगीचे
की सैर ही कर आओ
थोडा
चम्पा को निहारो
चमेली,
गुलाब, गेंदा को सहलाओ
पंछियों के झुण्ड को दाना डालो
उगते
हुए सूरज की तस्वीर ही उतारो
बाहर
जीवन बदल रहा है प्रतिपल
घट
रहा है परमात्मा का नृत्य
अनदेखा,
अनजाना पत्ते-पत्ते में अविकल
जन्मते
हजारों पादप इस धरा पर निरंतर
उलेचती
ही जाती है भूदेवी
रंगों
का अकूत खजाना
नहीं
चलेगा अब
घर
में बंद रहने का कोई बहाना !
सुबह की ताजगी में डूबी हुई कविता ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
अंतस को आनंदित करती बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंसुबह की ताजगी
जवाब देंहटाएं