शुक्रवार, सितंबर 23

एक अरूप ज्योति बहती है

एक अरूप ज्योति बहती है

पीछे मुड़कर देखें जब तक
क्यों न आगे कदम बढ़ा लें,
चंद पलों में मिल जाती हैं
लहरें मन में नयी जगा लें !

इक-इक श्वास भरे है भीतर
कोष एक अनंत प्रेम का,
बंद किवाड़ों के पीछे हों
या फिर जग को मीत बना लें

खग, मृग, तितली, भंवरे पादप
स्रोत नेह का सदा लुटाते,
खोल हृदय का द्वार उन्हें भी
निज जीवन का अमी पिला लें !

एक अरूप ज्योति बहती है
एक सूत्र पिरोये सबको,
बनें फूल माला के हम भी
वैजन्ती फिर हार चढ़ा लें !


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