दीवाना मन समझ न पाए
जीवन इक लय में बढ़ता है
जागे भोर साँझ सो जाये,
कभी हिलोर कभी पीड़ा दे
जाने क्या हमको समझाये !
नए नए आविष्कारों से
एक ओर यह सरल हो रहा,
प्रतिस्पर्धा बढ़ी ही जाती
जीना दिन-दिन जटिल हो रहा !
निज पथ का राही ही तो है
अपनी मति गति से चलता है,
फिर भी क्यों मानव का अंतर
सहयोगी से भी डरता है !
मित्रों में ही शत्रु खोजता
प्रेम दिखाता घृणा छिपाए,
दोहरापन यही तोड़ रहा
दीवाना मन समझ न पाए !
मन के पार उजाला बिखरा
नजर उठाकर भी ना देखे,
खुद का ही विस्तार हुआ है
स्वयं लिखे हैं सारे लेखे !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-6-22) को "आओ पर्यावरण बचाएं"(चर्चा अंक-4474) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार!
हटाएंसही सुंदर सभी कुछ खुद का ही लिखा हुआ है
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंमन के पार उजाला बिखरा
जवाब देंहटाएंनजर उठाकर भी ना देखे,
खुद का ही विस्तार हुआ है
स्वयं लिखे हैं सारे लेखे !... वाह!बहुत बढ़िया दी।
स्वागत व आभार अनीता जी !
हटाएंमन के पार उजाला बिखरा
जवाब देंहटाएंनजर उठाकर भी ना देखे,
खुद का ही विस्तार हुआ है
स्वयं लिखे हैं सारे लेखे ! . बहुत सुंदर सराहनीय रचना।
स्वागत व आभार जिज्ञासा जी !
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुमन जी !
हटाएंवाह लाजबाव सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी !
हटाएंमैंने कल टिप्पणी की थी । स्पैम में देखिएगा ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना ।
स्वागत व आभार संगीता जी, खेद है आपकी कल वाली टिप्पणी नहीं पढ़ पायी, स्पैम मेल में भी नहीं थी, क्या कहीं और देखा जाता है, आभार !
हटाएंखुद का ही विस्तार हुआ है
जवाब देंहटाएंस्वयं लिखे हैं सारे लेखे ... वाह
स्वागत व आभार संजय जी !
हटाएंबढ़िया है।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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