अंतर्प्रवाह
बहते हैं विचार... किसी
सागर की तरह
सागर.. जो बहता है लहरों
में या
भाप बनकर,
जब वह आकाश में उठ जाता है
संग हवाओं के !
जीवन भी बहता है
घटनाओं में या
फिर प्रेम भरी भावनाओं में
जब मन ऊपर उठ जाता है..
यह तर्क है निरा... या
आत्मा की आवाज
कौन जानता है ?
शब्द आते हैं जाने किस
स्रोत से
कौन उन्हें गढ़ता है भीतर
गहराई में
किसने भरे हैं अर्थ उनमें
और क्या उनके लक्ष्य हैं ?
जीवन का लक्ष्य भी क्या है
किसे पता है
मौन के सिवा कुछ नहीं है वहाँ
जहाँ जाकर रुक जाते हैं सब
रस्ते
एक गहन सन्नाटा
और खामोशी !
क्यों फैलाया है इतना बड़ा
माया का लोक
जहाँ होना भर है
विचारों की सीमा है
पर क्या है उसके पार
जहाँ से दिव्य गंध आती है
जहाँ जीवन एक सहज अनुभव है
!
वाह..
जवाब देंहटाएंउस पार जीवन साक्षात है.
जैसा कि मैं हमेशा कहता आया हूँ
आपकी कविताएँ बहुमूल्य हैं.
हमेशां प्रभावित करती है.
आत्मसात
स्वागत व आभार रोहितास जी !
हटाएंचाहे इन्सान का है पर ये माया लोक उसी का बनाया हुआ है ... वही खेलता है ...
जवाब देंहटाएंमोहरा बन इंसान सोचता है मैं कर रहा हूँ ...
गहरी रचना है ...
सही कहा है आपने, उसके सिवा और कोई यह कर ही नहीं सकता..
हटाएंविचारणीय , मंगलकामनाएं !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिलबाग जी !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी, आप सदा ब्लॉगर्स का हर्ष बढ़ाते हैं..
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुशील जी !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
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