उर से ऐसे ही बहे छंद
मुक्त गगन है
मुक्त पवन है
मुक्त फिजायें
गीत सुनातीं,
मुक्त रहे मन चाह
यही तो
कदम-कदम पर है
उलझाती !
सदा मुक्त जो कैद देह में
चाहों की जंजीरें
बाँधी,
नयन खुले से लगते
भर हैं
कहाँ नींद से
नजरें जागी !
भावों की हाला पी
पीकर
होश गँवाए ठोकर
खायी,
व्यर्थ किया पोषण
उस 'मैं' का
बुनियाद जिसकी
नहीं पायी !
हो निर्भार उड़ा
अम्बर में
उस प्रियतम की
थाह ना मिली,
छोड़ दिया तिरने
को खग सा
विश्रांति हित डाल ना खिली !
तिरने में ही उसे
पा लिया
उड़ेंं बादल ज्यों
हो निर्बंध,
बरस गये करने जी
हल्का
उर से ऐसे ही बहे
छंद !
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार २८ सितंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंसुंदर एवं भावपूर्ण
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार
हटाएंबहुत उत्तम.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर रचना 👌
जवाब देंहटाएंभावों की हाला पी पीकर
जवाब देंहटाएंहोश गँवाए ठोकर खायी,
व्यर्थ किया पोषण उस 'मैं' का
बुनियाद जिसकी नहीं पायी !
बहुत लाजवाब...
वाह!!!
बेहद खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार लोकेश जी !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार रोहितास जी, अनीता जी, सुधा जी व अनुराधा जी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार सुशील जी !
हटाएंबहुत सुंदर रचना अनिता जी, शब्दों का सुंदर प्रयोग सुंदर समन्वय के साथ, गतिशीलता प्रवाह मान।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम
स्वागत व आभार कुसुम जी, उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया..
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