माँ
बात पुरानी है, जब
भारत और पाकिस्तान एक ही मुल्क थे. पाकपटन में हजारों या कहें लाखों पंजाबी
परिवारों की तरह दो परिवार रहते थे. एक परिवार की छोटी सी गोल-मटोल बालिका जब
खेलते-खेलते पडोस में बने पानी के नल पर पहुँच गयी, जहाँ वे लोग वस्त्र धो रहे थे,
तो उस परिवार के मुखिया ने कहा कितनी सुंदर बालिका है, बड़ी होने पर इसे हमारे
परिवार की बहू बनायेंगे. बात हँसी-मजाक में कही गयी थी पर वर्षों बाद विभाजन के
बाद जब दोनों परिवार भारत आ गये, संयोग से वह बालिका उसी परिवार में ब्याही गयी. विभाजन
की त्रासदी के जो दंश मन पर उसने झेले थे, जिसमें उसके पिता की मृत्यु हो गयी थी
और माँ को एक हाथ में लकवा मार गया था, ताउम्र वह भुला नहीं पायी. अपना बसा-बसाया
घर-बार छोड़कर जब मीलों पैदल चलकर अनजान प्रदेशों में सब कुछ नये सिरे से शुरू करना
पड़ता है, तो उसका कष्ट कोई भुक्त भोगी ही जान सकता है.
भारत आकर कुछ समाजसेवी
महिलाओं की सहायता से दसवीं तक पढ़ाई की, फिर हिंदी में एक विशेष परीक्षा भी
उत्तीर्ण की. खैर, वह तो पुरानी बात हो गयी. ब्याह के बाद पति के साथ वह जगह-जगह घूमने
लगी, जिनकी डाक विभाग में सरकारी नौकरी लग गयी थी. आजादी के बाद सब जगह नये-नये
डाक घर खुल रहे थे, सरकारी नौकरी मिलना एक शान की बात समझी जाती थी. परिवार बढ़ा और
बच्चों को लेकर वह कुछ दिनों के लिए ससुराल में आ गयी. तकदीर की बात, पति का
तबादला भी उसी शहर में हो गया. सब मिलजुल कर रहने लगे. माँ सुबह उठकर अंगीठी
जलाती, उन दिनों गैस के चूल्हे नहीं थे. सबके लिए भोजन बनाती, फिर घर की सफाई
करती, कपड़ों को सिर पर उठाकर नदी पर धोने जाती. मोहल्ले के परिवारों के साथ तंदूर
पर रोटी सेंकती. सर्दियों में गर्म पानी कर के एक-एक कर सभी बच्चों को नहलातीं,
लडकियों के बाल धोतीं. समय निकाल कर बच्चों को गृहकार्य में मदद करती, पत्रिकाओं
में हिंदी कहानियाँ पढ़ती. घर में दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, नंदन,
पराग, चंदामामा, सरिता सभी पत्रिकाएँ नियमित आती थीं.
कुछ वर्षों बाद फिर एक नया
शहर, नया घर. सारी गृहस्थी समेटकर नये लोगों से जान-पहचान बनाना और सब जगह
सखी-सहेलियां बना लेने की कला उसे सहज ही आती थी. बच्चे भी तबादला होने पर पुरानी
जगह छूटने का अफ़सोस नहीं करते थे, बल्कि नई जगह के सपने देखने लगते थे. कल्पना में
वे नये घर में अपने-अपने कमरों का चुनाव तक कर लेते. माँ ने उन्हें सपने देखना
सिखाया था और पिता ने किताबों और कहानियों की एक सुंदर दुनिया से उनका परिचय
करवाया था. रेलवे के प्रथम श्रेणी के डब्बों में जब पूरा परिवार बक्सों और
बिस्तरों के साथ यात्रा पर निकलता तो वह एक यादगार अनुभव होता था. उन दिनों रेल
में ही नहाने की व्यवस्था भी होती थी, पर अक्सर कोयले से काले हुए चेहरे और कपड़ों
पर कालिख लेकर ही उन्हें उतरना पड़ता था. माँ के पास गिने-चुने वस्त्र ही होते थे
जिन्हें वह सलीके से पहनकर बाहर जाती थी. समय बीतता गया. बच्चे कालेज पहुँच गये,
फिर एक एक कर उनके विवाह हो गये. सभी अपनी घर-गृहस्थी में व्यस्त रहने लगे. जब भी
कोई घर आता, माँ घर का निकाला मक्खन और स्वादिष्ट परांठे का नाश्ता कराती, साथ ही हाथ
का बना स्वेटर या क्रोशिये का कोई मेजपोश आदि उन्हें उपहार में देती. हर सर्दियों
में नाती-पोतों, नतिनी-पोतियों के लिए स्वेटर बनाती रहती. छुट्टियों में घर जाने
का सभी को इंतजार रहता. पिता भी अब सेवानिवृत्ति के बाद घर पर रहने लगे थे.
जीवन
सदा एक सा नहीं रहता. माँ की तबियत खराब रहने लगी तो उन्हें डाक्टर को दिखाया गया.
दिल और श्वास की बीमारी थी, वर्षों तक अंगीठी का धुआं शायद उनके फेफड़ों को
प्रभावित करता रहा हो, अथवा तो बचपन में जो भय उन्हें अपने स्कूल में लगता था,
उसका असर रहा हो. बारह वर्ष की थीं जब भारत आयीं, पर उससे पूर्व स्कूल में अपनी ही
कक्षा में पढ़ने वाली विधर्मी लडकियों से सुना करती थीं कि वे सभी उनकी भाभियाँ
बनेंगी. उन्हें धर्म परिवर्तन करना पड़ेगा यदि यहाँ रहना है. कुछ वर्ष इलाज कराने के
बाद एक दिन उन्होंने देह त्याग दी. एक कर्मठ जीवन का अंत हुआ, अंतिम दिनों में भी
वह पुत्रवधू के लिए स्वेटर बना रही थीं, जो अधूरा रह गया. आज माँ का स्मरण हो रहा है
तो लगता है उनके रहते कभी उनसे यह नहीं कहा कि आपने जो शिक्षा हमें दी है, वह
अनमोल है. सबके साथ मिलजुल कर रहने की कला, हर जगह मिलते ही अपरिचितों को अपना बना
लेना. पिता कई बार पहले से बिना बताये मित्रों को भोजन पर आमंत्रित कर लेते थे, पर
वह अनजान लोगों के लिए भी उसी प्रेम से भोजन बनातीं जैसे अपने बच्चों के लिए बना
रही हों. वाकई सादगी और श्रम की एक मिसाल थीं माँ. सिलाई-कढ़ाई व बुनाई सीखते समय
भले कितनी ही बार एक ही बात को उनसे पूछो वह कभी भी झुंझलाती नहीं थीं, बल्कि अपनी
ही त्रुटि समझतीं, कि शायद वह ही ठीक से बता नहीं पा रही हैं. सभी संबंधियों के
साथ उनके आत्मीय रिश्ते थे. कोई मेहमान चाहे कितने भी दिन रुके उन्हें शिकायत करते
नहीं देखा. कम खर्च में जब बड़ी मुश्किल से महीने का खर्च चलता हो ऐसी उदारता बहुत
अर्थवान है. आज सभी सम्पन्न हैं. किंतु किफायत से चलने की जो सीख बचपन में मिली है
वह सभी को फिजूलखर्ची से रोकती है. माँ ! आप जहाँ भी हों हम सभी की दुआएं आप तक
पहुँचें.
माँ अपने कर्म से जीवन रीत सिखा जाती है...
जवाब देंहटाएंनमन है माँ को ...
सही कहा है आपने, स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुन्दर तरीके से प्रस्तुत किया है आपने जज्बात को
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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