मौन
मन मौन हुआ जाता है
मुखर हुआ था सदियों पहले
शब्दों की चादर ओढ़े,
घर से निकला... घूम रहा था
अब लौटना चाहता है
शब्द काफी नहीं उसके लिए
जो बयान करना चाहे
मन अब मौन कहा चाहता है
शब्द नहीं जिसको कहने के लिए
दुनिया की किसी भाषा में
ओस कोई कैसे लिखे
जो रात बरस जाती है
हरियाली को तृप्त करती
बारिश कोई कैसे लिखे
जो झर-झर, झर जाती है !
खत्म हो गयी है शब्दों की पूंजी
सब खर्च हो गए जितने मिले थे
दुनिया की उलझन को बयान करते
अब न उलझनें बचीं न शब्द
अब इस नाटक पर
पर्दा डालना चाहता
खोजना चाहता है उस स्रोत को ही
जहाँ से शब्द उतरते हैं
है
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 25 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
जवाब देंहटाएंओस कोई कैसे लिखे
जवाब देंहटाएंजो रात बरस जाती है
हरियाली को तृप्त करती
बारिश कोई कैसे लिखे
जो झर-झर, झर जाती है !
वाह !! बहुत खूब ,प्रकृति के इस मौन को कोई कैसे लिखे ,बेहतरीन अभिव्यक्ति अनीता जी ,सादर नमन
स्वागत व आभार कामिनी जी !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-02-2020) को "डर लगता है" (चर्चा अंक-3623) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
हटाएंबेहतरीन रचना आदरणीया
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंमन मौन हुआ जाता है ,वाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार !
हटाएंमौन का निःशब्द स्वर मन में घर कर गया ।सुन्दर अभिव्यक्ति आदरणीया ।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार पल्लवी जी !
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